१संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धामका अधिपति बनेगा ।’’
और (इस १४७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] यदि इसप्रकार (जीवको ) संसारदुःखनाशक २निजात्मनियत
चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) सुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले सुखका
अतिशयरूपसे कारण होता है; — ऐसा जानकर जो (मुनिवर ) निर्दोष समयके सारको
सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपति — कि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वह — पापरूपी
अटवीको जलानेवाली अग्नि है ।२५५।
गाथा : १४८ अन्वयार्थ : — [आवश्यकेन हीनः ] आवश्यक रहित
[श्रमणः ] श्रमण [चरणतः ] चरणसे [प्रभ्रष्टः भवति ] प्रभ्रष्ट (अति भ्रष्ट ) है; [तस्मात्
पुनः ] और इसलिये [पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वोक्त क्रमसे (पहले कही हुई विधिसे )
तथा हि —
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं
मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् ।
बुद्ध्वेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः ।।२५५।।
आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो ।
पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।।१४८।।
आवश्यकेन हीनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः ।
पूर्वोक्त क्रमेण पुनः तस्मादावश्यकं कुर्यात् ।।१४८।।
१- संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त ।
२- निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलम्बन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निज
आत्मामें एकाग्र ।
रे श्रमण आवश्यक - रहित चारित्रसे प्रभ्रष्ट है ।
अतएव आवश्यक करम पूर्वोक्त विधिसे इष्ट है ।।१४८।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-