Niyamsar (Hindi). Gatha: 148.

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२९८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तथा हि
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं
मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्
बुद्ध्वेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः
।।२५५।।
आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो
पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।।१४८।।
आवश्यकेन हीनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः
पूर्वोक्त क्रमेण पुनः तस्मादावश्यकं कुर्यात।।१४८।।

संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धामका अधिपति बनेगा ’’

और (इस १४७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] यदि इसप्रकार (जीवको ) संसारदुःखनाशक निजात्मनियत चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) सुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले सुखका अतिशयरूपसे कारण होता है;ऐसा जानकर जो (मुनिवर ) निर्दोष समयके सारको सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपतिकि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वहपापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है २५५

गाथा : १४८ अन्वयार्थ :[आवश्यकेन हीनः ] आवश्यक रहित [श्रमणः ] श्रमण [चरणतः ] चरणसे [प्रभ्रष्टः भवति ] प्रभ्रष्ट (अति भ्रष्ट ) है; [तस्मात् पुनः ] और इसलिये [पूर्वोक्तक्रमेण ] पूर्वोक्त क्रमसे (पहले कही हुई विधिसे ) १- संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त २- निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलम्बन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निज

आत्मामें एकाग्र
रे श्रमण आवश्यक - रहित चारित्रसे प्रभ्रष्ट है
अतएव आवश्यक करम पूर्वोक्त विधिसे इष्ट है ।।१४८।।