बाह्य षट् - आवश्यकप्रपंचरूपी नदीके कोलाहलके श्रवणसे ( – व्यवहार छह
आवश्यकके विस्ताररूपी नदीकी कलकलाहटके श्रवणसे ) पराङ्मुख हे शिष्य !
शुद्धनिश्चय - धर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय – शुक्लध्यानस्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यकको — कि
जो संसाररूपी लताके मूलको छेदनेका कुठार है उसे — यदि तू चाहता है, तो तू समस्त
विकल्पजाल रहित निरंजन निज परमात्माके भावोंमें — सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र
और सहज सुख आदिमें — सतत - निश्चल स्थिरभाव करता है; उस हेतुसे (अर्थात् उस कारण
द्वारा ) निश्चयसामायिकगुण उत्पन्न होनेपर, मुमुक्षु जीवको बाह्य छह आवश्यकक्रियाओंसे
क्या उत्पन्न हुआ ? ❃
अनुपादेय फल उत्पन्न हुआ ऐसा अर्थ है । इसलिये अपुनर्भवरूपी
(मुक्तिरूपी ) स्त्रीके संभोग और हास्य प्राप्त करनेमें प्रवीण ऐसे निष्क्रिय परम – आवश्यकसे
जीवको सामायिकचारित्र सम्पूर्ण होता है ।
इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री योगीन्द्रदेवने (अमृताशीतिमें ६४वें श्लोक द्वारा ) कहा
है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] यदि किसी प्रकार मन निज स्वरूपसे चलित हो और उससे
बाहर भटके तो तुझे सर्व दोषका प्रसंग आता है, इसलिये तू सतत अंतर्मग्न और
इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वानश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्ध-
निश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्त-
विकल्पजालविनिर्मुक्त निरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुख-
प्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य
बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेन
निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति ।
तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः —
(मालिनी)
‘‘यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद्
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः ।
तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।’’
❃ अनुपादेय = हेय; पसन्द न करने योग्य; प्रशंसा न करने योग्य ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ २९७