[श्लोकार्थ : — ] सर्वज्ञ - वीतरागमें और इस स्ववश योगीमें कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरेरे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं । २५३ ।
[श्लोकार्थ : — ] इस जन्ममें स्ववश महामुनि एक ही सदा धन्य है कि जो अनन्यबुद्धिवाला रहता हुआ ( – निजात्माके अतिरिक्त अन्यके प्रति लीन न होता हुआ ) सर्व कर्मोंसे बाहर रहता है । २५४ ।
गाथा : १४७ अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि तू [आवश्यकम् इच्छसि ] आवश्यकको चाहता है तो तू [आत्मस्वभावेषु ] आत्मस्वभावोंमें [स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [करोषि ] करता है; [तेन तु ] उससे [जीवस्य ] जीवको [सामायिकगुणं ] सामायिकगुण [सम्पूर्णं भवति ] सम्पूर्ण होता है ।
टीका : — यह, शुद्धनिश्चय - आवश्यककी प्राप्तिका जो उपाय उसके स्वरूपका कथन है ।