[श्लोकार्थ : — ] असार संसारमें, पापसे भरपूर कलिकालका विलास होने पर,
इस निर्दोष जिननाथके मार्गमें मुक्ति नहीं है । इसलिये इस कालमें अध्यात्मध्यान कैसे हो
सकता है ? इसलिये निर्मलबुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धाको
अंगीकृत करते हैं ।२६४।
गाथा : १५५ अन्वयार्थ : — [जिनकथितपरमसूत्रे ] जिनकथित परम सूत्रमें
[प्रतिक्रमणादिकं स्फु टम् परीक्षयित्वा ] प्रतिक्रमणादिककी स्पष्ट परीक्षा करके [मौनव्रतेन ]
मौनव्रत सहित [योगी ] योगीको [निजकार्यम् ] निज कार्य [नित्यम् ] नित्य [साधयेत् ]
साधना चाहिये ।
टीका : — यहाँ साक्षात् अन्तर्मुख परमजिनयोगीको यह शिक्षा दी गई है ।
श्रीमद् अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए
हैं ऐसी चतुरशब्दरचनारूप द्रव्यश्रुतमें शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि
(शिखरिणी)
असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले
न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति ।
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।।२६४।।
जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फु डं ।
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।।१५५।।
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फु टम् ।
मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम् ।।१५५।।
इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्त म् ।
श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भे द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चय-
नयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः
३१० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पूरा परख प्रतिक्रमण आदिकको परम-जिनसूत्रमें ।
रे साधिये निज कार्य अविरत साधु ! रत व्रत मौनमें ।।१५५।।