Niyamsar (Hindi). Gatha: 155.

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[श्लोकार्थ : ] असार संसारमें, पापसे भरपूर कलिकालका विलास होने पर,
इस निर्दोष जिननाथके मार्गमें मुक्ति नहीं है इसलिये इस कालमें अध्यात्मध्यान कैसे हो
सकता है ? इसलिये निर्मलबुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धाको
अंगीकृत करते हैं
२६४
गाथा : १५५ अन्वयार्थ :[जिनकथितपरमसूत्रे ] जिनकथित परम सूत्रमें
[प्रतिक्रमणादिकस्फु टम् परीक्षयित्वा ] प्रतिक्रमणादिककी स्पष्ट परीक्षा करके [मौनव्रतेन ]
मौनव्रत सहित [योगी ] योगीको [निजकार्यम् ] निज कार्य [नित्यम् ] नित्य [साधयेत् ]
साधना चाहिये
टीका :यहाँ साक्षात् अन्तर्मुख परमजिनयोगीको यह शिक्षा दी गई है
श्रीमद् अर्हत्के मुखारविन्दसे निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए
हैं ऐसी चतुरशब्दरचनारूप द्रव्यश्रुतमें शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि
(शिखरिणी)
असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले
न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्
।।२६४।।
जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फु डं
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।।१५५।।
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फु टम्
मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम् ।।१५५।।
इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्त म्
श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भे द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चय-
नयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः
३१० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पूरा परख प्रतिक्रमण आदिकको परम-जिनसूत्रमें
रे साधिये निज कार्य अविरत साधु ! रत व्रत मौनमें ।।१५५।।