Niyamsar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 311 of 388
PDF/HTML Page 338 of 415

 

background image
सत्क्रियाको जानकर, केवल स्वकार्यमें परायण परमजिनयोगीश्वरको प्रशस्तअप्रशस्त
समस्त वचनरचनाको परित्यागकर, सर्व संगकी आसक्तिको छोड़कर अकेला होकर,
मौनव्रत सहित, समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यों ) द्वारा निन्दा किये जाने
पर भी
अभिन्न रहकर, निजकार्यकोकि जो निजकार्य निर्वाणरूपी सुलोचनाके
सम्भोगसौख्यका मूल है उसेनिरन्तर साधना चाहिये
[अब इस १५५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] आत्मज्ञानी मुमुक्षु जीव पशुजनकृत लौकिक भयको तथा घोर
संसारकी करनेवाली प्रशस्त - अप्रशस्त वचनरचनाको छोड़कर और कनक-कामिनी सम्बन्धी
मोहको तजकर, मुक्तिके लिये स्वयं अपनेसे अपनेमें ही अविचल स्थितिको प्राप्त होते
हैं
२६५
[श्लोकार्थ : ] आत्मप्रवादमें (आत्मप्रवाद नामक श्रुतमें ) कुशल ऐसा
परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनों द्वारा किये जानेवाले भयको छोड़कर और उस (प्रसिद्ध ) सकल
परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा
चैकाकीभूय मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्यं
निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति
(मंदाक्रांता)
हित्वा भीतिं पशुजनकृतां लौकिकीमात्मवेदी
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम्
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं चात्मनात्मा
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः
।।२६५।।
(वसंततिलका)
भीतिं विहाय पशुभिर्मनुजैः कृतां तं
मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम्
आत्मप्रवादकुशलः परमात्मवेदी
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम्
।।२६६।।
अभिन्न = छिन्नभिन्न हुए बिना; अखण्डित; अच्युत
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३११