द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः । भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता लौकिक जल्पजालको (वचनसमूहको ) तजकर, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वको प्राप्त होता है ।२६६।
गाथा : १५६ अन्वयार्थ : — [नानाजीवाः ] नाना प्रकारके जीव हैं, [नानाकर्म ] नाना प्रकारका कर्म है; [नानाविधा लब्धिः भवेत् ] नाना प्रकारकी लब्धि है; [तस्मात् ] इसलिये [स्वपरसमयैः ] स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ (स्वधर्मियों तथा परधर्मियोंके साथ ) [वचनविवादः ] वचनविवाद [वर्जनीयः ] वर्जनेयोग्य है ।
टीका : — यह, वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके हेतुका कथन है (अर्थात् वचनविवाद किसलिये छोड़नेयोग्य है उसका कारण यहाँ कहा है ) ।
जीव नाना प्रकारके हैं : मुक्त हैं और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारी — त्रस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा (पंचेन्द्रिय ) संज्ञी तथा (पंचेन्द्रिय ) असंज्ञी ऐसे भेदोंके कारण त्रस जीव पाँच प्रकारके हैं । पृथ्वी, पानी, तेज, वायु और वनस्पति यह (पाँच प्रकारके ) स्थावर जीव हैं । भविष्य कालमें स्वभाव - अनन्त - चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि गुणोंरूपसे ❃भवनके योग्य (जीव ) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव ) वे वास्तवमें अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदोंके कारण, अथवा (आठ ) मूल प्रकृति और ❃ भवन = परिणमन; होना सो ।