Niyamsar (Hindi). Gatha: 156.

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लौकिक जल्पजालको (वचनसमूहको ) तजकर, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वको प्राप्त
होता है
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गाथा : १५६ अन्वयार्थ :[नानाजीवाः ] नाना प्रकारके जीव हैं,
[नानाकर्म ] नाना प्रकारका कर्म है; [नानाविधा लब्धिः भवेत् ] नाना प्रकारकी लब्धि है;
[तस्मात् ] इसलिये [स्वपरसमयैः ] स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ (स्वधर्मियों तथा
परधर्मियोंके साथ ) [वचनविवादः ] वचनविवाद [वर्जनीयः ] वर्जनेयोग्य है
टीका :यह, वचनसम्बन्धी व्यापारकी निवृत्तिके हेतुका कथन है (अर्थात्
वचनविवाद किसलिये छोड़नेयोग्य है उसका कारण यहाँ कहा है )
जीव नाना प्रकारके हैं : मुक्त हैं और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारीत्रस और
स्थावर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा (पंचेन्द्रिय ) संज्ञी तथा (पंचेन्द्रिय ) असंज्ञी ऐसे
भेदोंके कारण त्रस जीव पाँच प्रकारके हैं पृथ्वी, पानी, तेज, वायु और वनस्पति यह (पाँच
प्रकारके ) स्थावर जीव हैं भविष्य कालमें स्वभाव - अनन्त - चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि
गुणोंरूपसे भवनके योग्य (जीव ) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव ) वे वास्तवमें अभव्य
हैं द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदोंके कारण, अथवा (आठ ) मूल प्रकृति और
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ।।१५६।।
नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः
तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः ।।१५६।।
वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिहेतूपन्यासोऽयम्
जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः, भव्या अभव्याश्च संसारिणः त्रसाः स्थावराः;
द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः
भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता
भवन = परिणमन; होना सो
हैं जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नानाविध कही
अतएव ही निज - पर समयके साथ वर्जित वाद भी ।।१५६।।
३१२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-