Niyamsar (Hindi). Gatha: 157.

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(एक सौ अड़तालीस ) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोंके कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और
मंदतर उदयभेदोंके कारण, कर्म नाना प्रकारका है
जीवोंको सुखादिकी प्राप्तिरूप लब्धि
काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदोंके कारण पाँच प्रकारकी है इसलिये
परमार्थके जाननेवालोंको स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ वाद करने योग्य नहीं है
[भावार्थ :] जगतमें जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकारके
हैं; इसलिये सर्व जीव समान विचारोंके हों ऐसा होना असम्भव है इसलिये पर जीवोंको
समझा देनेकी आकुलता करना योग्य नहीं है स्वात्मावलम्बनरूप निज हितमें प्रमाद न
हो इसप्रकार रहना ही कर्तव्य है ]
[अब इस १५६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जीवोंके, संसारके कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि ) बहुत
प्रकारके भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्मका उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकारका है;
यह लब्धि भी विमल जिनमार्गमें अनेक प्रकारकी प्रसिद्ध है; इसलिये स्वसमयों और
परसमयोंके साथ वचनविवाद कर्तव्य नहीं है
२६७
ह्यभव्याः कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ
तीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपदेशोपशम-
प्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति
(शिखरिणी)
विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम्
असौ लब्धिर्नाना विमलजिनमार्गे हि विदिता
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्
।।२६७।।
लद्धूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ।।१५७।।
निधि पा मनुज तत्फल वतनमें गुप्त रह ज्यों भोगता
त्यों छोड़ परजनसंग ज्ञानी ज्ञान निधिको भोगता ।।१५७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३१३