(एक सौ अड़तालीस ) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोंके कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और
मंदतर उदयभेदोंके कारण, कर्म नाना प्रकारका है । जीवोंको सुखादिकी प्राप्तिरूप लब्धि
काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदोंके कारण पाँच प्रकारकी है । इसलिये
परमार्थके जाननेवालोंको स्वसमयों तथा परसमयोंके साथ वाद करने योग्य नहीं है ।
[भावार्थ : — ] जगतमें जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकारके
हैं; इसलिये सर्व जीव समान विचारोंके हों ऐसा होना असम्भव है । इसलिये पर जीवोंको
समझा देनेकी आकुलता करना योग्य नहीं है । स्वात्मावलम्बनरूप निज हितमें प्रमाद न
हो इसप्रकार रहना ही कर्तव्य है । ]
[अब इस १५६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जीवोंके, संसारके कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि ) बहुत
प्रकारके भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्मका उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकारका है;
यह लब्धि भी विमल जिनमार्गमें अनेक प्रकारकी प्रसिद्ध है; इसलिये स्वसमयों और
परसमयोंके साथ वचनविवाद कर्तव्य नहीं है ।२६७।
ह्यभव्याः । कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ
तीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा । जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपदेशोपशम-
प्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा । ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति ।
(शिखरिणी)
विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम् ।
असौ लब्धिर्नाना विमलजिनमार्गे हि विदिता
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम् ।।२६७।।
लद्धूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते ।
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ।।१५७।।
निधि पा मनुज तत्फल वतनमें गुप्त रह ज्यों भोगता ।
त्यों छोड़ परजनसंग ज्ञानी ज्ञान निधिको भोगता ।।१५७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३१३