चतुर्थज्ञानधारिभिः पूर्वसूरिभिः समाख्यातम् । परमनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्-
श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धरत्नत्रयात्मकमार्गो मोक्षोपायः, तस्य शुद्धरत्नत्रयस्य फलं
स्वात्मोपलब्धिरिति ।
(पृथ्वी)
क्वचिद् व्रजति कामिनीरतिसमुत्थसौख्यं जनः
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः ।
क्वचिज्जिनवरस्य मार्गमुपलभ्य यः पंडितो
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः ।।9।।
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं ।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ ७
सर्वज्ञके शासनमें कथन किया है । निज परमात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप
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शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होनेसे मोक्षका उपाय है और उस शुद्धरत्नत्रयका फल
स्वात्मोपलब्धि ( – निज शुद्ध आत्माकी प्राप्ति) है ।
[अब दूसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] मनुष्य कभी कामिनीके प्रति रतिसे उत्पन्न होनेवाले सुखकी
ओर गति करता है और फि र कभी धनरक्षाकी बुद्धि करता है । जो पण्डित कभी
जिनवरके मार्गको प्राप्त करके निज आत्मामें रत हो जाते हैं, वे वास्तवमें इस मुक्तिको
प्राप्त होते हैं ।९।
✽ शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निज परमात्मतत्त्वकी सम्यक् श्रद्धा, उसका सम्यक् ज्ञान और उसका सम्यक् आचरण
परकी तथा भेदोंकी लेश भी अपेक्षा रहित होनेसे वह शुद्धरत्नत्रय मोक्षका उपाय है; उस शुद्धरत्नत्रयका
फल शुद्ध आत्माकी पूर्ण प्राप्ति अर्थात् मोक्ष है ।
जो नियमसे कर्तव्य दर्शन - ज्ञान - व्रत यह नियम है ।
यह ‘सार’ पद विपरीतके परिहार हित परिकथित है ।।३।।