Niyamsar (Hindi). Gatha: 3.

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चतुर्थज्ञानधारिभिः पूर्वसूरिभिः समाख्यातम् परमनिरपेक्षतया निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्-
श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धरत्नत्रयात्मकमार्गो मोक्षोपायः, तस्य शुद्धरत्नत्रयस्य फलं
स्वात्मोपलब्धिरिति
(पृथ्वी)
क्वचिद् व्रजति कामिनीरतिसमुत्थसौख्यं जनः
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः
क्वचिज्जिनवरस्य मार्गमुपलभ्य यः पंडितो
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः
।।9।।
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[
सर्वज्ञके शासनमें कथन किया है निज परमात्मतत्त्वके सम्यक्श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप
शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होनेसे मोक्षका उपाय है और उस शुद्धरत्नत्रयका फल
स्वात्मोपलब्धि (निज शुद्ध आत्माकी प्राप्ति) है
[अब दूसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ :] मनुष्य कभी कामिनीके प्रति रतिसे उत्पन्न होनेवाले सुखकी
ओर गति करता है और फि र कभी धनरक्षाकी बुद्धि करता है जो पण्डित कभी
जिनवरके मार्गको प्राप्त करके निज आत्मामें रत हो जाते हैं, वे वास्तवमें इस मुक्तिको
प्राप्त होते हैं
शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निज परमात्मतत्त्वकी सम्यक् श्रद्धा, उसका सम्यक् ज्ञान और उसका सम्यक् आचरण
परकी तथा भेदोंकी लेश भी अपेक्षा रहित होनेसे वह शुद्धरत्नत्रय मोक्षका उपाय है; उस शुद्धरत्नत्रयका
फल शुद्ध आत्माकी पूर्ण प्राप्ति अर्थात् मोक्ष है
जो नियमसे कर्तव्य दर्शन - ज्ञान - व्रत यह नियम है
यह ‘सार’ पद विपरीतके परिहार हित परिकथित है ।।।।