नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ।।३।।
अत्र नियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्त म् ।
यः सहजपरमपारिणामिकभावस्थितः स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः शुद्धज्ञानचेतना-
परिणामः स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।
ज्ञानं तावत् तेषु त्रिषु परद्रव्यनिरवलंबत्वेन निःशेषतोन्तर्मुखयोगशक्ते : सकाशात् निज-
१- इस परम पारिणामिक भावमें ‘पारिणामिक’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित
करनेके लिये नहीं है तथा पर्यायार्थिक नयका विषय नहीं है; यह परम पारिणामिक भाव तो उत्पादव्यय-
निरपेक्ष एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है । [विशेषके लिये हिन्दी समयसार गा० ३२०
श्री जयसेनाचार्यदेवकी संस्कृत टीका और बृहदद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टीका देखो ।]
२- इस शुद्धज्ञानचेतनापरिणाममें ‘परिणाम’ शब्द होने पर भी वह उत्पादव्ययरूप परिणामको सूचित करनेके
लिये नहीं है और पर्यायार्थिक नयका विषय नहीं है; यह शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम तो उत्पादव्ययनिरपेक्ष
एकरूप है और द्रव्यार्थिक नयका विषय है ।
३- यह नियम सो कारणनियम है, क्योंकि वह सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप कार्यनियमका कारण है ।
[कारणनियमके आश्रयसे कार्यनियम प्रगट होता है ।]
८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
गाथा : ३ अन्वयार्थ : — [सः नियमः ] नियम अर्थात् [नियमेन च ] नियमसे
(निश्चित) [यत् कार्यं ] जो करनेयोग्य हो वह अर्थात् [ज्ञानदर्शनचारित्रम् ]
ज्ञानदर्शनचारित्र । [विपरीतपरिहारार्थं ] विपरीतके परिहार हेतुसे (ज्ञानदर्शनचारित्रसे विरुद्ध
भावोंका त्याग करनेके लिये) [खलु ] वास्तवमें [सारम् इति वचनम् ] ‘सार’ ऐसा वचन
[भणितम् ] कहा है
।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), ‘नियम’ शब्दको ‘सार’ शब्द क्यों लगाया है
उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभावरत्नत्रयका स्वरूप कहा है ।
जो सहज १परम पारिणामिक भावसे स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक
२शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम सो ३नियम ( – कारणनियम) है । नियम ( – कार्यनियम) अर्थात्
निश्चयसे (निश्चित) जो करनेयोग्य — प्रयोजनस्वरूप — हो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र ।
उन तीनोंमेंसे प्रत्येकका स्वरूप कहा जाता है : (१) परद्रव्यका अवलंबन लिये बिना