परमतत्त्वपरिज्ञानम् उपादेयं भवति । दर्शनमपि भगवत्परमात्मसुखाभिलाषिणो जीवस्य
शुद्धान्तस्तत्त्वविलासजन्मभूमिस्थाननिजशुद्धजीवास्तिकायसमुपजनितपरमश्रद्धानमेव भवति ।
चारित्रमपि निश्चयज्ञानदर्शनात्मककारणपरमात्मनि अविचलस्थितिरेव । अस्य तु नियम-
शब्दस्य निर्वाणकारणस्य विपरीतपरिहारार्थत्वेन सारमिति भणितं भवति ।
(आर्या)
इति विपरीतविमुक्तं रत्नत्रयमनुत्तमं प्रपद्याहम् ।
अपुनर्भवभामिन्यां समुद्भवमनंगशं यामि ।।१०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ ९
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निःशेषरूपसे अन्तर्मुख योगशक्तिमेंसे उपादेय ( – उपयोगको सम्पूर्णरूपसे अन्तर्मुख
करके ग्रहण करनेयोग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्वका परिज्ञान ( – जानना) सो ज्ञान है ।
(२) भगवान परमात्माके सुखके अभिलाषी जीवको शुद्ध अन्तःतत्त्वके १विलासका
जन्मभूमिस्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान
वही दर्शन है । (३) निश्चयज्ञानदर्शनात्मक कारणपरमात्मामें अविचल स्थिति
( – निश्चलरूपसे लीन रहना) ही चारित्र है । यह ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप नियम
निर्वाणका २कारण है । उस ‘नियम’ शब्दको ३विपरीतके परिहार हेतु ‘सार’ शब्द जोड़ा
गया है ।
[अब तीसरी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहा जाता है :]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार मैं विपरीत रहित ( – विकल्परहित) ४अनुत्तम
रत्नत्रयका आश्रय करके मुक्तिरूपी स्त्रीसे उत्पन्न अनङ्ग ( – अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक)
सुखको प्राप्त करता हूँ ।१०।
१- विलास=क्रीड़ा, आनन्द, मौज ।
२- कारण जैसा ही कार्य होता है; इसलिये स्वरूपमें स्थिरता करनेका अभ्यास ही वास्तवमें अनन्त काल
तक स्वरूपमें स्थिर रह जानेका उपाय है ।
३- विपरीत=विरुद्ध । [व्यवहाररत्नत्रयरूप विकल्पोंको — पराश्रित भावोंको — छोड़कर मात्र निर्विकल्प
ज्ञानदर्शनचारित्रका ही — शुद्धरत्नत्रयका ही — स्वीकार करने हेतु ‘नियम’ के साथ ‘सार’ शब्द
जोड़ा है ।]
४- अनुत्तम=जिससे उत्तम कोई दूसरा नहीं है ऐसा; सर्वोत्तम; सर्वश्रेष्ठ ।