परिणतिस्तस्य महानन्दस्योपायः । अपि चैषां ज्ञानदर्शनचारित्राणां त्रयाणां प्रत्येकप्ररूपणा भवति । कथम्, इदं ज्ञानमिदं दर्शनमिदं चारित्रमित्यनेन विकल्पेन । दर्शनज्ञानचारित्राणां लक्षणं वक्ष्यमाणसूत्रेषु ज्ञातव्यं भवति ।
गाथा : ४ अन्वयार्थ : — [नियमः ] (रत्नत्रयरूप) नियम [मोक्षोपायः ] मोक्षका उपाय है; [तस्य फलं ] उसका फल [परमनिर्वाणं भवति ] परम निर्वाण है । [अपि च ] पुनश्च (भेदकथन द्वारा अभेद समझानेके हेतु) [एतेषां त्रयाणां ] इन तीनोंका [प्रत्येकप्ररूपणा ] भेद करके भिन्न-भिन्न निरूपण [भवति ] होता है ।
टीका : — रत्नत्रयके भेद करनेके सम्बन्धमें और उनके लक्षणोंके सम्बन्धमें यह कथन है ।
समस्त कर्मोंके नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा आनन्दका लाभ सो मोक्ष है । उस महा आनन्दका उपाय पूर्वोक्त निरुपचार रत्नत्रयरूप परिणति है । पुनश्च (निरुपचार रत्नत्रयरूप अभेदपरिणतिमें अन्तर्भूत रहे हुए) इन तीनका — ज्ञान, दर्शन और चारित्रका — भिन्न-भिन्न निरूपण होता है । किस प्रकार ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है — इसप्रकार भेद करके । (इस शास्त्रमें) जो गाथासूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें दर्शन-ज्ञान-चारित्रके लक्षण ज्ञात होंगे ।