[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धनके
समूहको पाकर, संगको छोड़कर गुप्त होकर रहता है; उसकी भाँति ज्ञानी (परके संगको
छोड़कर गुप्तरूपसे रहकर ) ज्ञानकी रक्षा करता है ।२६८।
[श्लोकार्थ : — ] जन्ममरणरूप रोगके हेतुभूत समस्त संगको छोड़कर,
हृदयकमलमें १बुद्धिपूर्वक पूर्णवैराग्यभाव करके, सहज परमानन्द द्वारा जो अव्यग्र
(अनाकुल ) है ऐसे निज रूपमें (अपनी ) २शक्तिसे स्थित रहकर, मोह क्षीण होने पर,
हम लोकको सदा तृणवत् देखते हैं ।२६९।
गाथा : १५८ अन्वयार्थ : — [सर्वे ] सर्व [पुराणपुरुषाः ] पुराण पुरुष
(शालिनी)
अस्मिन् लोके लौकिकः कश्चिदेकः
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम् ।
गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्त संगो
ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति ।।२६८।।
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा संगं जननमरणातंकहेतुं समस्तं
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम् ।
स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः ।।२६९।।
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण ।
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ।।१५८।।
सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा ।
अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ।।१५८।।
१ — बुद्धिपूर्वक = समझपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक ।
२ — शक्ति = सामर्थ्य; बल; वीर्य; पुरुषार्थ ।
यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकोंकी विधि धरी ।
पाकर अरे अप्रमत्त स्थान हुए नियत प्रभु केवली ।।१५८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-परमावश्यक अधिकार[ ३१५