Niyamsar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 316 of 388
PDF/HTML Page 343 of 415

 

३१६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमा-

वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति

(शार्दूलविक्रीडित)
स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्ति स्पृहो निस्पृहः
स स्यात
् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ।।२७०।।

[एवम् ] इसप्रकार [आवश्यकं च ] आवश्यक [कृत्वा ] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं ] अप्रमत्तादि स्थानको [प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः ] केवली हुए

टीका :यह, परमावश्यक अधिकारके उपसंहारका कथन है

स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप ऐसा जो बाह्य - आवश्यकादि क्रियासे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यकसाक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी ) स्त्रीके अनंग (अशरीरी ) सुखका कारणउसे करके, सर्व पुराण पुरुष कि जिनमेंसे तीर्थंकरपरमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वेअप्रमत्तसे लेकर सयोगीभट्टारक तकके गुणस्थानोंकी पंक्तिमें आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप आत्माराधनाके प्रसादसे केवलीसकलप्रत्यक्षज्ञानधारीहुए

[अब इस निश्चय - परमावश्यक अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] पहले जो सर्व पुराण पुरुषयोगीनिज आत्माकी आराधनासे समस्त कर्मरूपी राक्षसोंके समूहका नाश करके विष्णु और जयवन्त हुए (अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए ), उन्हें जो मुक्तिकी स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य विष्णु = व्यापक (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापक

कहा जाता है)