[एवम् ] इसप्रकार [आवश्यकं च ] आवश्यक [कृत्वा ] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं ]
अप्रमत्तादि स्थानको [प्रतिपद्य च ] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः ] केवली हुए ।
टीका : — यह, परमावश्यक अधिकारके उपसंहारका कथन है ।
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप ऐसा जो बाह्य -
आवश्यकादि क्रियासे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यक — साक्षात् अपुनर्भवरूपी
(मुक्तिरूपी ) स्त्रीके अनंग (अशरीरी ) सुखका कारण — उसे करके, सर्व पुराण पुरुष —
कि जिनमेंसे तीर्थंकर – परमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वे — अप्रमत्तसे
लेकर सयोगीभट्टारक तकके गुणस्थानोंकी पंक्तिमें आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप
आत्माराधनाके प्रसादसे केवली — सकलप्रत्यक्षज्ञानधारी — हुए ।
[अब इस निश्चय - परमावश्यक अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] पहले जो सर्व पुराण पुरुष — योगी — निज आत्माकी
आराधनासे समस्त कर्मरूपी राक्षसोंके समूहका नाश करके ❃विष्णु और जयवन्त हुए
(अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए ), उन्हें जो मुक्तिकी स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम् ।
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमा-
वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः
स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः
केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात् जाताश्चेति ।
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः ।
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्ति स्पृहो निस्पृहः
स स्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ।।२७०।।
❃ विष्णु = व्यापक । (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापक
कहा जाता है) ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-