नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् ।
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय ।।२७१।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव- विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकादशमः श्रुतस्कन्धः ।। मनसे नित्य प्रणाम करता है, वह जीव पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान है और उसके चरणकमलको सर्व जन पूजते हैं ।२७०।
[श्लोकार्थ : — ] हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह उसे छोड़कर, हे चित्त ! निर्मल सुखके हेतु परम गुरु द्वारा धर्मको प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप (शांतस्वरूपी ) परमात्मामें — कि जो (परमात्मा ) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणोंसे अलंकृत है तथा दिव्य ज्ञानवाला है उसमें — शीघ्र प्रवेश कर । २७१ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें ) निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।