अब समस्त कर्मके प्रलयके हेतुभूत शुद्धोपयोगका अधिकार कहा जाता है ।
गाथा : १५९ अन्वयार्थ : — [व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [केवली
भगवान् ] केवली भगवान [सर्वं ] सब [जानाति पश्यति ] जानते हैं और देखते हैं;
[नियमेन ] निश्चयसे [केवलज्ञानी ] केवलज्ञानी [आत्मानम् ] आत्माको (स्वयंको )
[जानाति पश्यति ] जानता है और देखता है ।
टीका : — यहाँ, ज्ञानीको स्व-पर स्वरूपका प्रकाशकपना कथंचित् कहा है ।
‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे,
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शुद्धोपयोग अधिकार
अथ सकलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते ।
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५९।।
जानाति पश्यति सर्वं व्यवहारनयेन केवली भगवान् ।
केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ।।१५९।।
अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्त म् ।
आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासादितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां व्यवहार-
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व्यवहारसे प्रभु केवली सब जानते अरु देखते ।
निश्चयनयात्मक-द्वारसे निज आत्मको प्रभु पेखते ।।१५९।।