च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् ।
ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः“ (?) स भगवान् त्रिकाल-
परमात्मापि जानाति पश्यति च । किं कृत्वा ? ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं
उक्तं च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः — व्यवहारनयसे वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणोंका घात करनेवाले घातिकर्मोंके नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोंको एक समयमें जानते हैं और देखते हैं । शुद्धनिश्चयसे परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतरागको, परद्रव्यके ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदिके विविध विकल्पोंकी सेनाकी उत्पत्ति मूलध्यानमें अभावरूप होनेसे (? ), वे भगवान त्रिकाल - निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित ), नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारणपरमात्माको, स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी, जानते हैं और देखते हैं । किसप्रकार ? इस ज्ञानका धर्म तो, दीपककी भाँति, स्वपरप्रकाशकपना है । घटादिकी प्रमितिसे प्रकाश – दीपक (कथंचित् ) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होनेसे स्व और परको प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योतिस्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकालरूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्माको (स्वयंको ) प्रकाशित करता है ।
९६ पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करनेसे जिन्होंने विशाल कीर्ति प्राप्त की है ऐसे महासेनपंडितदेवने भी (श्लोक द्वारा ) कहा है कि : — ★ यहाँ संस्कृत टीकामें अशुद्धि मालूम होती है, इसलिये संस्कृत टीकामें तथा उसके अनुवादमें शंकाको