‘‘[श्लोकार्थ : — ] वस्तुका यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान,
दीपककी भाँति, स्वके और (पर ) पदार्थोंके निर्णयात्मक है तथा प्रमितिसे (ज्ञप्तिसे )
कथंचित् भिन्न है ।’’
अब ‘स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे,
(ज्ञानको ) सतत ❃निरुपराग निरंजन स्वभावमें लीनताके कारण निश्चयपक्षसे भी
स्वपरप्रकाशकपना है ही । (वह इसप्रकार : ) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा, लक्षण और
प्रयोजनकी अपेक्षासे भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षणसे (तथा भिन्न प्रयोजनसे ) जाना जाता है
तथापि वस्तुवृत्तिसे (अखण्ड वस्तुकी अपेक्षासे ) भिन्न नहीं है; इस कारणसे यह
(सहजज्ञान ) आत्मगत (आत्मामें स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदिको जानता है और
स्वात्माको — कारणपरमात्माके स्वरूपको — भी जानता है ।
(सहजज्ञान स्वात्माको तो स्वाश्रित निश्चयनयसे जानता ही है और इसप्रकार
स्वात्माको जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं । अब सहजज्ञानने जो यह
जाना उसमें भेद - अपेक्षासे देखें तो सहजज्ञानके लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त
अन्य सब — दर्शन, सुख आदि — पर है; इसलिये इस अपेक्षासे ऐसा सिद्ध हुआ कि
निश्चयपक्षसे भी ज्ञान स्वको तथा परको जानता है । )
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १९२वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
(अनुष्टुभ्)
‘‘यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् ।
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।’’
अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव-
निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात् । सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात्
संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति,
अतःकारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि
जानातीति ।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः —
❃ निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-