Niyamsar (Hindi).

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३२० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
‘‘यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।’’

अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव- निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अतःकारणात् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानातीति

तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः

‘‘[श्लोकार्थ : ] वस्तुका यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान, दीपककी भाँति, स्वके और (पर ) पदार्थोंके निर्णयात्मक है तथा प्रमितिसे (ज्ञप्तिसे ) कथंचित् भिन्न है ’’

अब ‘स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )’ ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे, (ज्ञानको ) सतत निरुपराग निरंजन स्वभावमें लीनताके कारण निश्चयपक्षसे भी स्वपरप्रकाशकपना है ही (वह इसप्रकार : ) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षणसे (तथा भिन्न प्रयोजनसे ) जाना जाता है तथापि वस्तुवृत्तिसे (अखण्ड वस्तुकी अपेक्षासे ) भिन्न नहीं है; इस कारणसे यह (सहजज्ञान ) आत्मगत (आत्मामें स्थित ) दर्शन, सुख, चारित्र आदिको जानता है और स्वात्माकोकारणपरमात्माके स्वरूपकोभी जानता है

(सहजज्ञान स्वात्माको तो स्वाश्रित निश्चयनयसे जानता ही है और इसप्रकार स्वात्माको जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं अब सहजज्ञानने जो यह जाना उसमें भेद - अपेक्षासे देखें तो सहजज्ञानके लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त अन्य सबदर्शन, सुख आदिपर है; इसलिये इस अपेक्षासे ऐसा सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्षसे भी ज्ञान स्वको तथा परको जानता है )

इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें १९२वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि : निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार