Niyamsar (Hindi). Gatha: 160.

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‘‘[श्लोकार्थ : ] कर्मबन्धके छेदनसे अतुल अक्षय (अविनाशी ) मोक्षका
अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था
जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्तशुद्ध (
कर्मका मैल न रहनेसे जो अत्यन्त शुद्ध
हुआ है ऐसा ), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित ) निजरसकी
अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा (
सर्वथा
शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ ), अपनी अचल महिमामें लीन हुआ ’’
और (इस १५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] व्यवहारनयसे यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्वको
वास्तवमें जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीके कोमल मुखकमल पर कामपीड़ाको
तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फै लाता है
निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेशको नष्ट
किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपको अत्यन्त जानते हैं २७२
(मंदाक्रांता)
‘‘बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति
शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति
।।२७२।।
जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा
दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।।
ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते
त्यों केवलीको ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ।।१६०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३२१