‘‘[श्लोकार्थ : — ] कर्मबन्धके छेदनसे अतुल अक्षय (अविनाशी ) मोक्षका
अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था
जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्तशुद्ध ( – कर्मका मैल न रहनेसे जो अत्यन्त शुद्ध
हुआ है ऐसा ), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित ) निजरसकी
अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा ( – सर्वथा
शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ ), अपनी अचल महिमामें लीन हुआ ।’’
और (इस १५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] व्यवहारनयसे यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्वको
वास्तवमें जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीके कोमल मुखकमल पर कामपीड़ाको
तथा सौभाग्यचिह्नवाली शोभाको फै लाता है । निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेशको नष्ट
किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपको अत्यन्त जानते हैं ।२७२।
(मंदाक्रांता)
‘‘बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् ।
एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।’’
तथा हि —
(स्रग्धरा)
आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति ।
शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२।।
जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा ।
दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।।
ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते ।
त्यों केवलीको ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ।।१६०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३२१