सहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञान- केवलदर्शने च युगपद् वर्तेते । किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं भवति इति ।
गाथा : १६० अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानिनः ] केवलज्ञानीको [ज्ञानं ] ज्ञान [तथा च ] तथा [दर्शनं ] दर्शन [युगपद् ] युगपद् [वर्तते ] वर्तते हैं । [दिनकर- प्रकाशतापौ ] सूर्यके प्रकाश और ताप [यथा ] जिसप्रकार [वर्तेते ] (युगपद् ) वर्तते हैं [तथा ज्ञातव्यम् ] उसी प्रकार जानना ।
टीका : — यहाँ वास्तवमें केवलज्ञान और केवलदर्शनका युगपद् वर्तना दृष्टान्त द्वारा कहा है ।
यहाँ दृष्टान्तपक्षसे किसी समय बादलोंकी बाधा न हो तब आकाशके मध्यमें स्थित सूर्यके प्रकाश और ताप जिसप्रकार युगपद् वर्तते हैं, उसीप्रकार भगवान परमेश्वर तीर्थाधिनाथको त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर - जङ्गम द्रव्यगुणपर्यायात्मक ज्ञेयोंमें सकल - विमल (सर्वथा निर्मल ) केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् वर्तते हैं । और (विशेष इतना समझना कि ), संसारियोंको दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है (अर्थात् प्रथम दर्शन और फि र ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते) ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत ) श्री प्रवचनसारमें (६१वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
[गाथार्थ : — ] ज्ञान पदार्थोंके पारको प्राप्त है और दर्शन लोकालोकमें विस्तृत है; सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है ।’’