Niyamsar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३२३
अन्यच्च
‘‘दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओग्गा
जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
वर्तेते ज्ञानद्रष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे
सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसद्रशे विश्वलोकैकनाथे
एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन्
तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्
।।२७३।।

और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित बृहद्द्रव्यसंग्रहमें ४४वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि :

‘‘[गाथार्थ : ] छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (अर्थात् पहले दर्शन और फि र ज्ञान होता है ), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते; केवलीनाथको वे दोनों युगपद् होते हैं ’’

और (इस १६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] जो धर्मतीर्थके अधिनाथ (नायक ) हैं, जो असदृश हैं (अर्थात् जिनके समान अन्य कोई नहीं है ) और जो सकल लोकके एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं जिसने समस्त तिमिरसमूहका नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्यमें जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपद् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं (अर्थात् सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं ), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद् ) होते हैं (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान प्रगट होता है ) २७३