तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ।।२७३।।
और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित बृहद्द्रव्यसंग्रहमें ४४वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (अर्थात् पहले दर्शन और फि र ज्ञान होता है ), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते; केवलीनाथको वे दोनों युगपद् होते हैं ।’’
और (इस १६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो धर्मतीर्थके अधिनाथ (नायक ) हैं, जो असदृश हैं (अर्थात् जिनके समान अन्य कोई नहीं है ) और जो सकल लोकके एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं । जिसने समस्त तिमिरसमूहका नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्यमें जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपद् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं (अर्थात् सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं ), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद् ) होते हैं (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान प्रगट होता है ) ।२७३।