तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः — निरन्तर आराधना करने योग्य है । वहाँ (स्याद्वादमतमें ), एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमतमें दर्शन भी केवल शुद्धात्माको ही नहीं देखता (अर्थात् मात्र स्वप्रकाशक ही नहीं है ) । आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मोंका आधार है । (वहाँ ) व्यवहारपक्षसे भी ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो, सदा बाह्यस्थितपनेके कारण, (ज्ञानको ) आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और (इसलिये ) १आत्मप्रतिपत्तिके अभावके कारण सर्वगतपना (भी ) नहीं बनेगा । इस कारणसे, यह ज्ञान होगा ही नहीं (अर्थात् ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं होगा ), मृगतृष्णाके जलकी भाँति आभासमात्र ही होगा । इसीप्रकार दर्शनपक्षमें भी, दर्शन केवल २अभ्यन्तरप्रतिपत्तिका ही कारण नहीं है, (सर्वप्रकाशनका कारण है ); (क्योंकि ) चक्षु सदैव सर्वको देखता है, अपने अभ्यन्तरमें स्थित कनीनिकाको नहीं देखता (इसलिये चक्षुकी बातसे ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तरको देखे और बाह्यस्थित पदार्थोंको न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता ) । इससे, ज्ञान और दर्शनको (दोनोंको ) स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है । इसलिये (इसप्रकार ) ज्ञानदर्शनलक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – आत्मप्रतिपत्ति = आत्माका ज्ञान; स्वको जानना सो । २ – अभ्यन्तरप्रतिपत्ति = अन्तरंगका प्रकाशन; स्वको प्रकाशना सो ।