‘‘[श्लोकार्थ : — ] जिसने कर्मोंको छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान
और भावि समस्त विश्वको (अर्थात् तीनों कालकी पर्यायों सहित समस्त पदार्थोंको) युगपद्
जानता होने पर भी मोहके अभावके कारण पररूपसे परिणमित नहीं होता, इसलिये अब,
जिसके समस्त ज्ञेयाकारोंको अत्यन्त विकसित ज्ञप्तिके विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों
लोकके पदार्थोंको पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।’’
और (इस १६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञान एक सहजपरमात्माको जानकर लोकालोकको अर्थात्
लोकालोकसम्बन्धी (समस्त) ज्ञेयसमूहको प्रगट करता है ( – जानता है ) । नित्य-शुद्ध ऐसा
क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्वपरविषयक है (अर्थात् वह भी स्वपरको साक्षात् प्रकाशित
करता है ) । उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन) द्वारा आत्मदेव स्वपरसम्बन्धी ज्ञेयराशिको जानता
है (अर्थात् आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदार्थोंको प्रकाशित करता है ) ।२७७।
(स्रग्धरा)
‘‘जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा ।
तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत-
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ।।’’
तथा हि —
(मंदाक्रांता)
ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा
लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्गतं ज्ञेयजालम् ।
द्रष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा
ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।।२७७।।
णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६२।।
पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञानसे दृग् भिन्न रे ।
‘परद्रव्यगत नहिं दर्श !’ वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ।।१६२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३२७