और दर्शनको कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना है ही ।
नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; ❃पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो यह आत्मा है ऐसा कहा है ।’’
और (इस १६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन भी नहीं ही है; वह उभययुक्त (ज्ञानदर्शनयुक्त) आत्मा स्वपर विषयको अवश्य जानता है और देखता है । अघसमूहके (पापसमूहके) नाशक आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें संज्ञा - भेदसे भेद उत्पन्न होता है (अर्थात् संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे उनमें उपरोक्तानुसार भेद है ), परमार्थसे अग्नि और उष्णताकी भाँति उनमें ( – आत्मामें और ज्ञानदर्शनमें ) वास्तवमें भेद नहीं है ( – अभेदता है ) ।२७८। ❃ पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहलेका और बादका ।