गाथा : १६३ अन्वयार्थ : — [आत्मा परप्रकाशः ] यदि आत्मा (केवल)
परप्रकाशक हो [तदा ] तो [आत्मना ] आत्मासे [दर्शनं ] दर्शन [भिन्नम् ] भिन्न सिद्ध
होगा, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात् ] क्योंकि दर्शन परद्रव्यगत
(परप्रकाशक) नहीं है ऐसा (पहले तेरा मंतव्य) वर्णन किया गया है ।
टीका : — यह, एकान्तसे आत्माको परप्रकाशकपना होनेकी बातका खण्डन है ।
जिसप्रकार पहले (१६२वीं गाथामें) एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशकपना खण्डित
किया गया है, उसीप्रकार अब यदि ‘आत्मा केवल परप्रकाशक है’ ऐसा माना जाये तो
वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि ×भाव और भाववान एक अस्तित्वसे
रचित होते हैं । पहले (१६२वीं गाथामें ) ऐसा बतलाया था कि यदि ज्ञान (केवल)
परप्रकाशक हो तो ज्ञानसे दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! यहाँ (इस गाथामें ) ऐसा समझना कि
यदि आत्मा (केवल) परप्रकाशक हो तो आत्मासे ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि
अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६३।।
आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम् ।
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात् ।।१६३।।
एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोऽयम् ।
यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलं
परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं, भावभाववतोरेकास्तित्वनिर्वृत्तत्वात् । पुरा किल ज्ञानस्य
परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं ज्ञातम् । अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति
तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् । अपि चात्मा न परद्रव्यगत इति चेत्
तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् । ततः खल्वात्मा स्वपरप्रकाशक इति यावत् । यथा
× ज्ञान भाव है और आत्मा भाववान है ।
पर ही प्रकाशे जीव तो हो आत्मसे दृग् भिन्न रे ।
परद्रव्यगत नहिं दर्श — वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ।।१६३।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-