‘आत्मा परद्रव्यगत नहीं है (अर्थात् आत्मा केवल परप्रकाशक नहीं है, स्वप्रकाशक भी
है )’ ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मासे दर्शनकी (सम्यक् प्रकारसे ) अभिन्नता सिद्ध
होगी ऐसा समझना । इसलिये वास्तवमें आत्मा स्वपरप्रकाशक है । जिसप्रकार (१६२वीं
गाथामें ) ज्ञानका कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्माका भी समझना,
क्योंकि अग्नि और उष्णताकी भाँति धर्मी और धर्मका एक स्वरूप होता है ।
[अब इस १६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञानदर्शनधर्मोंसे युक्त होनेके कारण आत्मा वास्तवमें धर्मी है ।
सकल इन्द्रियसमूहरूपी हिमको (नष्ट करनेके लिये ) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव
उसीमें (ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामें ही ) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्तिको प्राप्त
होता है — कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूपसे सुस्थित है । २७९ ।
गाथा : १६४ अन्वयार्थ : — [व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [ज्ञानं ] ज्ञान
कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात्
पावकोष्णवदिति ।
(मंदाक्रांता)
आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानद्रग्धर्मयुक्त :
तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम् ।
सम्यग्द्रष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्
मुक्तिं याति स्फु टितसहजावस्थया संस्थितां ताम् ।।२७९।।
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।
अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।।१६४।।
ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् ।
आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् ।।१६४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३३१
व्यवहारसे है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है ।
व्यवहारसे है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ।।१६४।।