Niyamsar (Hindi). Gatha: 164.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३३१
कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात
पावकोष्णवदिति
(मंदाक्रांता)
आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानद्रग्धर्मयुक्त :
तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम्
सम्यग्द्रष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्
मुक्तिं याति स्फु टितसहजावस्थया संस्थितां ताम् ।।२७९।।
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा
अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।।१६४।।
ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात
आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात।।१६४।।
‘आत्मा परद्रव्यगत नहीं है (अर्थात् आत्मा केवल परप्रकाशक नहीं है, स्वप्रकाशक भी
है )’ ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मासे दर्शनकी (सम्यक् प्रकारसे ) अभिन्नता सिद्ध
होगी ऐसा समझना
इसलिये वास्तवमें आत्मा स्वपरप्रकाशक है जिसप्रकार (१६२वीं
गाथामें ) ज्ञानका कथंचित् स्वपरप्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्माका भी समझना,
क्योंकि अग्नि और उष्णताकी भाँति धर्मी और धर्मका एक स्वरूप होता है

[अब इस १६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] ज्ञानदर्शनधर्मोंसे युक्त होनेके कारण आत्मा वास्तवमें धर्मी है सकल इन्द्रियसमूहरूपी हिमको (नष्ट करनेके लिये ) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव उसीमें (ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामें ही ) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्तिको प्राप्त होता हैकि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूपसे सुस्थित है २७९

गाथा : १६४ अन्वयार्थ :[व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [ज्ञानं ] ज्ञान
व्यवहारसे है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है
व्यवहारसे है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ।।१६४।।