[परप्रकाशं ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है ।
[व्यवहारनयेन ] व्यवहारनयसे [आत्मा ] आत्मा [परप्रकाशः ] परप्रकाशक है; [तस्मात् ]
इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन परप्रकाशक है ।
टीका : — यह, व्यवहारनयकी सफलता दर्शानेवाला कथन है ।
समस्त (ज्ञानावरणीय ) कर्मका क्षय होनेसे प्राप्त होनेवाला सकल-विमल केवलज्ञान
पुद्गलादि मूर्त - अमूर्त - चेतन - अचेतन परद्रव्यगुणपर्यायसमूहका प्रकाशक किसप्रकार है —
ऐसा यहाँ प्रश्न हो, तो उसका उत्तर यह है कि – ‘पराश्रितो व्यवहार: (व्यवहार पराश्रित है )’
ऐसा (शास्त्रका ) वचन होनेसे व्यवहारनयके बलसे ऐसा है (अर्थात् परप्रकाशक है );
इसलिये दर्शन भी वैसा ही ( – व्यवहारनयके बलसे परप्रकाशक) है । और तीन लोकके
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प्रक्षोभके हेतुभूत तीर्थंकर-परमदेवको — कि जो सौ इन्द्रोंकी प्रत्यक्ष वंदनाके योग्य हैं और
कार्यपरमात्मा हैं उन्हें — ज्ञानकी भाँति ही (व्यवहारनयके बलसे ) परप्रकाशकपना है;
इसलिये व्यवहारनयके बलसे उन भगवानका केवलदर्शन भी वैसा ही है ।
इसीप्रकार श्रुतबिन्दुमें (श्लोक द्वारा ) कहा है कि : —
[श्लोकार्थ : — ] जिन्होंने दोषोंको जीता है, जिनके चरण देवेन्द्रों तथा
व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह ।
इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलविमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्त-
चेतनाचेतनपरद्रव्यगुणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत्, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात्
व्यवहारनयबलेनेति । ततो दर्शनमपि ताद्रशमेव । त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य
शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् । तेन व्यवहार-
नयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि ताद्रशमेवेति ।
तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ —
(मालिनी)
‘‘जयति विजितदोषोऽमर्त्यमर्त्येन्द्रमौलि-
प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः ।
त्रिजगदजगती यस्येद्रशौ व्यश्नुवाते
सममिव विषयेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेद्धुम् ।।’’
❃ प्रक्षोभके अर्थ के लिये ८५वें पृष्ठकी टिप्पणी देखो ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-