प्रकटतरसुद्रष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२८०।।
नरेन्द्रोंके मुकुटोंमें प्रकाशमान मूल्यवान मालाओंसे पुजते हैं (अर्थात् जिनके चरणोंमें इन्द्र तथा चक्रवर्तियोंके मणिमालायुक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यन्त झुकते हैं ), और (लोकालोकके समस्त ) पदार्थ एक-दूसरेमें प्रवेशको प्राप्त न हों इसप्रकार तीन लोक और अलोक जिनमें एक साथ ही व्याप्त हैं (अर्थात् जो जिनेन्द्रको युगपत् ज्ञात होते हैं ), वे जिनेन्द्र जयवन्त हैं ।’’
और (इस १६४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] ज्ञानपुंज ऐसा यह आत्मा अत्यन्त स्पष्ट दर्शन होने पर (अर्थात् केवलदर्शन प्रगट होने पर ) व्यवहारनयसे सर्व लोकको देखता है तथा (साथमें वर्तते हुए केवलज्ञानके कारण ) समस्त मूर्त - अमूर्त पदार्थसमूहको जानता है । वह (केवल- दर्शनज्ञानयुक्त ) आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका ) वल्लभ होता है ।२८०।
गाथा : १६५ अन्वयार्थ : — [निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [ज्ञानम् ] ज्ञान [आत्मप्रकाशं ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ] इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है ।