[निश्चयनयेन ] निश्चयनयसे [आत्मा ] आत्मा [आत्मप्रकाशः ] स्वप्रकाशक है; [तस्मात् ]
इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है ।
टीका : — यह, निश्चयनयसे स्वरूपका कथन है ।
यहाँ निश्चयनयसे शुद्ध ज्ञानका लक्षण स्वप्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व
आवरणसे मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्वप्रकाशक ही है । आत्मा वास्तवमें, उसने सर्व
इन्द्रियव्यापारको छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणसे लक्षित है; दर्शन भी, उसने
बहिर्विषयपना छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूपप्रत्यक्ष - लक्षणसे
लक्षित अखण्ड - सहज - शुद्धज्ञानदर्शनमय होनेके कारण, निश्चयसे, त्रिलोक - त्रिकालवर्ती
स्थावर - जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य - प्रकाशकादि
विकल्पोंसे अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूपसंचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा
सर्वथा अंतर्मुख होनेके कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है ।
[अब इस १६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] निश्चयसे आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट
निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत् ।
निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरणप्रमुक्त शुद्ध-
दर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव । आत्मा हि विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारत्वात् स्वप्रकाशकत्वलक्षण-
लक्षित इति यावत् । दर्शनमपि विमुक्त बहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्वप्रधानमेव । इत्थं स्वरूप-
प्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंग-
मात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु “आकाशाप्रकाशकादिविकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे “संज्ञा-
लक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम् अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति ।
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या
द्रष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः ।
एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि ।।२८१।।
★ यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-