केवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिर- पेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्व- किया है ऐसा (स्वप्रकाशक ) जो साक्षात् दर्शन उस - रूप भी आत्मा है । एकाकार निजरसके फै लावसे पूर्ण होनेके कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन ) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है । २८१ ।
गाथा : १६६ अन्वयार्थ : — [केवली भगवान् ] (निश्चयसे ) केवली भगवान [आत्मस्वरूपं ] आत्मस्वरूपको [पश्यति ] देखते हैं, [न लोकालोकौ ] लोकालोकको नहीं — [एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कुछ दोष नहीं है । )
टीका : — यह, शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका (परको देखनेका) खण्डन है ।
यद्यपि व्यवहारसे एक समयमें तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायोंको जाननेमें समर्थ सकल - विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओंका धारण करनेवाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपनेके कारण निःशेषरूपसे (सर्वथा ) अन्तर्मुख होनेसे केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमें लीन ऐसे निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्माको निश्चयसे देखता है (परन्तु