Niyamsar (Hindi). Gatha: 166.

< Previous Page   Next Page >


Page 335 of 388
PDF/HTML Page 362 of 415

 

कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३३५
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६६।।
आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान्
यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ।।१६६।।
शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम्
व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविषयद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमल-

केवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीयलोचनोऽपि परमनिर- पेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापारनिरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्व- किया है ऐसा (स्वप्रकाशक ) जो साक्षात् दर्शन उस - रूप भी आत्मा है एकाकार निजरसके फै लावसे पूर्ण होनेके कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन ) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है २८१

गाथा : १६६ अन्वयार्थ :[केवली भगवान् ] (निश्चयसे ) केवली भगवान [आत्मस्वरूपं ] आत्मस्वरूपको [पश्यति ] देखते हैं, [न लोकालोकौ ] लोकालोकको नहीं[एवं ] ऐसा [यदि ] यदि [कः अपि भणति ] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति ] उसे क्या दोष है ? (अर्थात् कुछ दोष नहीं है )

टीका :यह, शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे परदर्शनका (परको देखनेका) खण्डन है

यद्यपि व्यवहारसे एक समयमें तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायोंको जाननेमें समर्थ सकल - विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओंका धारण करनेवाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपनेके कारण निःशेषरूपसे (सर्वथा ) अन्तर्मुख होनेसे केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमें लीन ऐसे निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्माको निश्चयसे देखता है (परन्तु

प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना
यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? १६६।।