लोकालोकको नहीं ) — ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्वका वेदन करनेवाला
(जाननेवाला, अनुभव करनेवाला ) परम जिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे कहता
है, उसे वास्तवमें दूषण नहीं है ।
[अब इस १६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] (❃निश्चयसे ) आत्मा सहज परमात्माको देखता है — कि जो
परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धिका आवास होनेसे (केवलज्ञानदर्शनादि )
महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मामें अत्यन्त अविचल
होनेसे सर्वदा अन्तर्मग्न है । स्वभावसे महान ऐसे उस आत्मामें ❃व्यवहारप्रपंच है ही नहीं ।
(अर्थात् निश्चयसे आत्मामें लोकालोकको देखनेरूप व्यवहारविस्तार है ही
नहीं ) ।२८२।
वेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।
(मंदाक्रांता)
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम् ।
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः ।।२८२।।
❃यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी ऐसा समझना कि — जिसमें स्वकी ही अपेक्षा हो वह निश्चयकथन है और
जिसमें परकी अपेक्षा आये वह व्यवहारकथन है; इसलिये केवली भगवान लोकालोकको — परको जानते-
देखते हैं ऐसा कहना वह व्यवहारकथन है और केवली भगवान स्वात्माको जानते-देखते हैं ऐसा कहना
वह निश्चयकथन है । यहाँ व्यवहारकथनका वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव
लोकालोकको जानता-देखता ही नहीं है उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते ही नहीं
हैं । छद्मस्थ जीवके साथ तुलनाकी अपेक्षासे तो केवलीभगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं वह बराबर
सत्य है — यथार्थ है, क्योंकि वे त्रिकाल सम्बन्धी सर्व द्रव्यगुणपर्यायोंको यथास्थित बराबर परिपूर्णरूपसे
वास्तवमें जानते-देखते हैं । ‘केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं’ ऐसा कहते हुए परकी अपेक्षा
आती है इतना ही सूचित करनेके लिये, तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्वको तद्रूप होकर निजसुखके
संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन
सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना
जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करनेके लिये उसे व्यवहार कहा है ।
३३६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-