Niyamsar (Hindi).

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३३६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
वेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति
(मंदाक्रांता)
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः
।।२८२।।
लोकालोकको नहीं )ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्वका वेदन करनेवाला
(जाननेवाला, अनुभव करनेवाला ) परम जिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे कहता
है, उसे वास्तवमें दूषण नहीं है

[अब इस १६६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] (निश्चयसे ) आत्मा सहज परमात्माको देखता हैकि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धिका आवास होनेसे (केवलज्ञानदर्शनादि ) महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मामें अत्यन्त अविचल होनेसे सर्वदा अन्तर्मग्न है स्वभावसे महान ऐसे उस आत्मामें व्यवहारप्रपंच है ही नहीं (अर्थात् निश्चयसे आत्मामें लोकालोकको देखनेरूप व्यवहारविस्तार है ही नहीं ) २८२ यहाँ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी ऐसा समझना किजिसमें स्वकी ही अपेक्षा हो वह निश्चयकथन है और

जिसमें परकी अपेक्षा आये वह व्यवहारकथन है; इसलिये केवली भगवान लोकालोककोपरको जानते-
देखते हैं ऐसा कहना वह व्यवहारकथन है और केवली भगवान स्वात्माको जानते-देखते हैं ऐसा कहना
वह निश्चयकथन है
यहाँ व्यवहारकथनका वाच्यार्थ ऐसा नहीं समझना कि जिसप्रकार छद्मस्थ जीव
लोकालोकको जानता-देखता ही नहीं है उसीप्रकार केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते ही नहीं
हैं
छद्मस्थ जीवके साथ तुलनाकी अपेक्षासे तो केवलीभगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं वह बराबर
सत्य हैयथार्थ है, क्योंकि वे त्रिकाल सम्बन्धी सर्व द्रव्यगुणपर्यायोंको यथास्थित बराबर परिपूर्णरूपसे
वास्तवमें जानते-देखते हैं ‘केवली भगवान लोकालोकको जानते-देखते हैं’ ऐसा कहते हुए परकी अपेक्षा
आती है इतना ही सूचित करनेके लिये, तथा केवली भगवान जिसप्रकार स्वको तद्रूप होकर निजसुखके
संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन
सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना
जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करनेके लिये उसे व्यवहार कहा है