गाथा : १८० अन्वयार्थ : — [न अपि इन्द्रियाः उपसर्गाः ] जहाँ इन्द्रियाँ नहीं
हैं, उपसर्ग नहीं हैं, [न अपि मोहः विस्मयः ] मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, [न निद्रा च ]
निद्रा नहीं है, [न च तृष्णा ] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा ] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च
निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् इन्द्रियादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यह, परम निर्वाणके योग्य परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है ।
(परमतत्त्व ) ❃अखण्ड - एकप्रदेशी - ज्ञानस्वरूप होनेके कारण (उसे) स्पर्शन, रसन,
घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इन्द्रियोंके व्यापार नहीं हैं तथा देव, मानव, तिर्यञ्च और
अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिकज्ञानमय और यथाख्यातचारित्रमय होनेके कारण (उसे)
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकारका मोहनीय नहीं है; बाह्य प्रपंचसे
विमुख होनेके कारण (उसे) विस्मय नहीं है; नित्य - प्रकटित शुद्धज्ञानस्वरूप होनेके कारण
(उसे) निद्रा नहीं है; असातावेदनीय कर्मको निर्मूल कर देनेके कारण (उसे) क्षुधा और
णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८०।।
नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च ।
न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१८०।।
परमनिर्वाणयोग्यपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।
अखंडैकप्रदेशज्ञानस्वरूपत्वात् स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियव्यापाराः
देवमानवतिर्यगचेतनोपसर्गाश्च न भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शन-
चारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वान्न विस्मयः, नित्योन्मीलित-
शुद्धज्ञानस्वरूपत्वान्न निद्रा, असातावेदनीयकर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च । तत्र परम-
❃खण्डरहित अभिन्नप्रदेशी ज्ञान परमतत्त्वका स्वरूप है इसलिये परमतत्त्वको इन्द्रियाँ और उपसर्ग
नहीं हैं ।
इन्द्रिय जहाँ नहिं, मोह नहिं, उपसर्ग, विस्मय भी नहीं ।
निद्रा, क्षुधा, तृष्णा नहीं, निर्वाण जानो रे वहीं ।।१८०।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-