कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम् ।
काचिन्मुक्ति र्भवति वचसां मानसानां च दूरम् ।।३०१।।
[श्लोकार्थ : — ] जो निर्वाणमें स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकारके समूहका नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें ( – उस परमब्रह्ममें ) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं । उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्ममें कोई ऐसी मुक्ति है कि जो वचन और मनसे दूर है ।३०१।
गाथा : १८२ अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानं ] (सिद्ध भगवानको) केवलज्ञान, [केवलदृष्टिः ] केवलदर्शन, [केवलसौख्यं च ] केवलसुख, [केवलं वीर्यम् ] केवलवीर्य, [अमूर्तत्वम् ] अमूर्तत्व, [अस्तित्वं ] अस्तित्व और [सप्रदेशत्वम् ] सप्रदेशत्व [विद्यते ] होते हैं ।
निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार ( – सर्वथा अन्तर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), स्वात्माश्रित निश्चय - परमशुक्लध्यानके बलसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका विलय