Niyamsar (Hindi). Gatha: 183.

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होने पर, उस कारणसे भगवान सिद्धपरमेष्ठीको केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य,
केवलसुख, अमूर्तत्व, अस्तित्व, सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं
[अब इस १८२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] बन्धके छेदनके कारण, भगवान तथा नित्यशुद्ध ऐसे उस प्रसिद्ध
सिद्धमें (सिद्धपरमेष्ठीमें ) सदा अत्यन्तरूपसे यह केवलज्ञान होता है, समग्र जिसका
विषय है ऐसा साक्षात् दर्शन होता है, आत्यंतिक सौख्य होता है तथा शुद्धशुद्ध ऐसा
वीर्यादिक अन्य गुणरूपी मणियोंका समूह होता है ३०२
गाथा : १८३ अन्वयार्थ :[निर्वाणम् एव सिद्धाः ] निर्वाण ही सिद्ध हैं और
[सिद्धाः निर्वाणम् ] सिद्ध वह निर्वाण है [इति समुद्दिष्टाः ] ऐसा (शास्त्रमें ) कहा है
कर्मविलये जाते ततो भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनः केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलवीर्य-
केवलसौख्यामूर्तत्वास्तित्वसप्रदेशत्वादिस्वभावगुणा भवंति इति
(मंदाक्रांता)
बन्धच्छेदाद्भगवति पुनर्नित्यशुद्धे प्रसिद्धे
तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत
द्रष्टिः साक्षादखिलविषया सौख्यमात्यंतिकं च
शक्त्याद्यन्यद्गुणमणिगणं शुद्धशुद्धश्च नित्यम् ।।३०२।।
णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा
कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जंतं ।।१८३।।
निर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणमिति समुद्दिष्टाः
कर्मविमुक्त आत्मा गच्छति लोकाग्रपर्यन्तम् ।।१८३।।
आत्यंतिक = सर्वश्रेष्ठ; अत्यन्त
निर्वाण ही तो सिद्ध है, है सिद्ध ही निर्वाण रे
हो कर्मसे प्रविमुक्त आत्मा पहुँचता लोकान्त रे ।।१८३।।
३६४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-