स्वभावक्रिया परमाणुगतिः, विभावक्रिया व्द्यणुकादिस्कन्धगतिः । अतोऽमीषां त्रिलोक- शिखरादुपरि गतिक्रिया नास्ति, परतो गतिहेतोर्धर्मास्तिकायाभावात्; यथा जलाभावे मत्स्यानां करता है, तो वह परमश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) कामिनीका वल्लभ होता है ।३०३।
गाथा : १८४ अन्वयार्थ : — [यावत् धर्मास्तिकः ] जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक [जीवानां पुद्गलानां ] जीवोंका और पुद्गलोंका [गमनं ] गमन [जानीहि ] जान; [धर्मास्तिकायाभावे ] धर्मास्तिकायके अभावमें [तस्मात् परतः ] उससे आगे [न गच्छंति ] वे नहीं जाते ।
जीवोंकी स्वभावक्रिया सिद्धिगमन (सिद्धक्षेत्रमें गमन) है और विभावक्रिया (अन्य भवमें जाते समय) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया ❃
(जीवपुद्गलोंकी) गतिक्रिया त्रिलोकके शिखरसे ऊ पर नहीं है, क्योंकि आगे गतिहेतु (गतिके निमित्तभूत) धर्मास्तिकायका अभाव है; जिसप्रकार जलके अभावमें मछलियोंकी गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार । इसीसे, जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक ❃ द्वि – अणुकादि स्कन्ध = दो परमाणुओंसे लेकर अनन्त परमाणुओंके बने हुए स्कन्ध ।