स्वभावगतिक्रिया और विभावगतिक्रियारूपसे परिणत जीव - पुद्गलोंकी गति होती है ।
[अब इस १८४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] गतिहेतुके अभावके कारण, सदा (अर्थात् कदापि ) त्रिलोकके
शिखरसे ऊ पर जीव और पुद्गल दोनोंका गमन नहीं ही होता । ३०४ ।
गाथा : १८५ अन्वयार्थ : — [नियमः ] नियम और [नियमस्य फलं ]
नियमका फल [प्रवचनस्य भक्त्या ] प्रवचनकी भक्तिसे [निर्दिष्टम् ] दर्शाये गये । [यदि ]
यदि (उसमें कुछ ) [पूर्वापरविरोधः ] पूर्वापर (आगेपीछे ) विरोध हो तो [समयज्ञाः ]
समयज्ञ (आगमके ज्ञाता ) [अपनीय ] उसे दूर करके [पूरयंतु ] पूर्ति करना ।
टीका : — यह, शास्त्रके आदिमें लिये गये नियमशब्दका तथा उसके फलका
उपसंहार है ।
गतिक्रिया नास्ति । अत एव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तत्क्षेत्रपर्यन्तं स्वभावविभाव-
गतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति ।
(अनुष्टुभ्)
त्रिलोकशिखरादूर्ध्वं जीवपुद्गलयोर्द्वयोः ।
नैवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः ।।३०४।।
णियमं णियमस्स फलं णिद्दिट्ठं पवयणस्स भत्तीए ।
पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा ।।१८५।।
नियमो नियमस्य फलं निर्दिष्टं प्रवचनस्य भक्त्या ।
पूर्वापरविरोधो यद्यपनीय पूरयंतु समयज्ञाः ।।१८५।।
शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोऽयम् ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३६७
जिनदेव-प्रवचन-भक्तिबलसे नियम, तत्फलमें कहे ।
यदि हो कहीं, समयज्ञ पूर्वापर विरोध सुधारिये ।।१८५।।