प्रथम तो, नियम शुद्धरत्नत्रयके व्याख्यानस्वरूपमें प्रतिपादित किया गया;
उसका फल परम निर्वाणके रूपमें प्रतिपादित किया गया । यह सब कवित्वके
अभिमानसे नहीं किन्तु प्रवचनकी भक्तिसे प्रतिपादित किया गया है । यदि (उसमें
कुछ ) पूर्वापर दोष हो तो समयज्ञ परमकवीश्वर दोषात्मक पदका लोप करके उत्तम
पद करना ।
[अब इस १८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मुक्तिका कारण होनेसे नियमसार तथा उसका फल उत्तम
पुरुषोंके हृदयकमलमें जयवन्त है । प्रवचनकी भक्तिसे सूत्रकारने जो किया है (अर्थात्
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने जो यह नियमसारकी रचना की है ), वह वास्तवमें
समस्त भव्यसमूहको निर्वाणका मार्ग है ।३०५।
नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः । तत्फलं परमनिर्वाण-
मिति प्रतिपादितम् । न कवित्वदर्पात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत् ।
यद्यपि पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तद्दोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं
कुर्वन्त्विति ।
(मालिनी)
जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां
हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात् ।
प्रवचनकृतभक्त्या सूत्रकृद्भिः कृतो यः
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः ।।३०५।।
ईसाभावेण पुणो केई णिंदंति सुंदरं मग्गं ।
तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।।१८६।।
३६८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो कोइ सुन्दर मार्गकी निन्दा करे मात्सर्यमें ।
सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्गमें ।।१८६।।