Niyamsar (Hindi). Gatha: 186.

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प्रथम तो, नियम शुद्धरत्नत्रयके व्याख्यानस्वरूपमें प्रतिपादित किया गया;
उसका फल परम निर्वाणके रूपमें प्रतिपादित किया गया यह सब कवित्वके
अभिमानसे नहीं किन्तु प्रवचनकी भक्तिसे प्रतिपादित किया गया है यदि (उसमें
कुछ ) पूर्वापर दोष हो तो समयज्ञ परमकवीश्वर दोषात्मक पदका लोप करके उत्तम
पद करना
[अब इस १८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मुक्तिका कारण होनेसे नियमसार तथा उसका फल उत्तम
पुरुषोंके हृदयकमलमें जयवन्त है प्रवचनकी भक्तिसे सूत्रकारने जो किया है (अर्थात्
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने जो यह नियमसारकी रचना की है ), वह वास्तवमें
समस्त भव्यसमूहको निर्वाणका मार्ग है
३०५
नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः तत्फलं परमनिर्वाण-
मिति प्रतिपादितम् न कवित्वदर्पात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत
यद्यपि पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तद्दोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं
कुर्वन्त्विति
(मालिनी)
जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां
हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात
प्रवचनकृतभक्त्या सूत्रकृद्भिः कृतो यः
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः
।।३०५।।
ईसाभावेण पुणो केई णिंदंति सुंदरं मग्गं
तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।।१८६।।
३६८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो कोइ सुन्दर मार्गकी निन्दा करे मात्सर्यमें
सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्गमें ।।१८६।।