तत्त्वसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपशुद्धरत्नत्रयप्रतिपक्षमिथ्यात्वकर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्या- दर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्गं सर्वज्ञवीतरागस्य मार्गं पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतु
रत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्ति : कर्तव्येति ।
गाथा : १८६ अन्वयार्थ : — [पुनः ] परन्तु [ईर्षाभावेन ] ईर्षाभावसे [केचित् ] कोई लोग [सुन्दरं मार्गम् ] सुन्दर मार्गको [निन्दन्ति ] निन्दते हैं [तेषां वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनमार्गके प्रति [अभक्तिं ] अभक्ति [मा कुरुध्वम् ] नहीं करना ।
कोई मंदबुद्धि त्रिकाल - निरावरण, नित्य आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसे निर्विकल्प निजकारणपरमात्मतत्त्वके सम्यक् - श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयसे प्रतिपक्ष मिथ्यात्वकर्मोदयके सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रपरायण वर्तते हुए ईर्षाभावसे अर्थात् मत्सरयुक्त परिणामसे सुन्दरमार्गको — पापक्रियासे निवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसे भेदोपचार - रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार - रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागके मार्गको — निन्दते हैं, उन स्वरूपविकल (स्वरूपप्राप्ति रहित ) जीवोंके कुहेतु - कुदृष्टान्तयुक्त कुतर्कवचन सुनकर जिनेश्वरप्रणीत शुद्धरत्नत्रयमार्गके प्रति, हे भव्य ! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है ।
[अब इस १८६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]