गाथा : १८६ अन्वयार्थ : — [पुनः ] परन्तु [ईर्षाभावेन ] ईर्षाभावसे
[केचित् ] कोई लोग [सुन्दरं मार्गम् ] सुन्दर मार्गको [निन्दन्ति ] निन्दते हैं [तेषां
वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनमार्गके प्रति [अभक्तिं ]
अभक्ति [मा कुरुध्वम् ] नहीं करना ।
टीका : — यहाँ भव्यको शिक्षा दी है ।
कोई मंदबुद्धि त्रिकाल - निरावरण, नित्य आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसे
निर्विकल्प निजकारणपरमात्मतत्त्वके सम्यक् - श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयसे
प्रतिपक्ष मिथ्यात्वकर्मोदयके सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रपरायण वर्तते हुए
ईर्षाभावसे अर्थात् मत्सरयुक्त परिणामसे सुन्दरमार्गको — पापक्रियासे निवृत्ति जिसका
लक्षण है ऐसे भेदोपचार - रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार - रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागके
मार्गको — निन्दते हैं, उन स्वरूपविकल (स्वरूपप्राप्ति रहित ) जीवोंके कुहेतु -
कुदृष्टान्तयुक्त कुतर्कवचन सुनकर जिनेश्वरप्रणीत शुद्धरत्नत्रयमार्गके प्रति, हे भव्य !
अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है ।
[अब इस १८६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो
श्लोक कहते हैं : ]
ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम् ।
तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्तिं मा कुरुध्वं जिनमार्गे ।।१८६।।
इह हि भव्यस्य शिक्षणमुक्त म् ।
केचन मंदबुद्धयः त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिर्विकल्पकनिजकारणपरमात्म-
तत्त्वसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपशुद्धरत्नत्रयप्रतिपक्षमिथ्यात्वकर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्या-
दर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्गं सर्वज्ञवीतरागस्य मार्गं
पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां
स्वरूपविकलानां कुहेतु
द्रष्टान्तसमन्वितं कुतर्कवचनं श्रुत्वा ह्यभक्तिं जिनेश्वरप्रणीतशुद्ध-
रत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्ति : कर्तव्येति ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३६९