[श्लोकार्थ : — ] देहसमूहरूपी वृक्षपंक्तिसे जो भयंकर है, जिसमें दुःख-
परम्परारूपी जङ्गली पशु (बसते ) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका
भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त
जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यन्त ×
दुर्गम है, उस संसार-अटवीरूपी
विकट स्थलमें जैन दर्शन एक ही शरण है ।३०६।
तथा —
[श्लोकार्थ : — ] जिन प्रभुका ज्ञानशरीर सदा लोकालोकका निकेतन है
(अर्थात् जिन नेमिनाथप्रभुके ज्ञानमें लोकालोक सदा समाते हैं — ज्ञात होते हैं ), उन
श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वरका — कि जिन्होंने शंखकी ध्वनिसे सारी पृथ्वीको कम्पा दिया था
उनका — स्तवन करनेके लिये तीन लोकमें कौन मनुष्य या देव समर्थ हैं ? (तथापि)
उनका स्तवन करनेका एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं
जानता हूँ ।३०७।
(शार्दूलविक्रीडित)
देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे
विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने“ ।
नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे द्रङ्मोहिनां देहिनां
जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।।३०६।।
तथा हि —
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभो-
स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् ।
स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा वा पुनः
जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्ति र्जिनेऽत्युत्सुका ।।३०७।।
★यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है ।
× दुर्गम = जिसे कठिनाईसे लाँघा जा सके ऐसा; दुस्तर । (संसार-अटवीमें अनेक कुनयरूपी मार्गोंमेंसे सत्य
मार्ग ढूँढ़ लेना मिथ्यादृष्टियोंको अत्यन्त कठिन है और इसलिये संसार-अटवी अत्यन्त दुस्तर है ।)
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-