Niyamsar (Hindi).

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३७० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(शार्दूलविक्रीडित)
देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे
विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने
नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे द्रङ्मोहिनां देहिनां
जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।।३०६।।
तथा हि
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभो-
स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम्
स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजाः शक्ताः सुरा वा पुनः
जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्ति र्जिनेऽत्युत्सुका
।।३०७।।

[श्लोकार्थ :] देहसमूहरूपी वृक्षपंक्तिसे जो भयंकर है, जिसमें दुःख- परम्परारूपी जङ्गली पशु (बसते ) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यन्त ×

दुर्गम है, उस संसार-अटवीरूपी

विकट स्थलमें जैन दर्शन एक ही शरण है ३०६

तथा

[श्लोकार्थ :] जिन प्रभुका ज्ञानशरीर सदा लोकालोकका निकेतन है (अर्थात् जिन नेमिनाथप्रभुके ज्ञानमें लोकालोक सदा समाते हैंज्ञात होते हैं ), उन श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वरकाकि जिन्होंने शंखकी ध्वनिसे सारी पृथ्वीको कम्पा दिया था उनकास्तवन करनेके लिये तीन लोकमें कौन मनुष्य या देव समर्थ हैं ? (तथापि) उनका स्तवन करनेका एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं जानता हूँ ३०७ यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है × दुर्गम = जिसे कठिनाईसे लाँघा जा सके ऐसा; दुस्तर (संसार-अटवीमें अनेक कुनयरूपी मार्गोंमेंसे सत्य

मार्ग ढूँढ़ लेना मिथ्यादृष्टियोंको अत्यन्त कठिन है और इसलिये संसार-अटवी अत्यन्त दुस्तर है )