मशुभवंचनार्थं नियमसाराभिधानं श्रुतं परमाध्यात्मशास्त्रशतकुशलेन मया कृतम् । किं कृत्वा ? पूर्वं ज्ञात्वा अवंचकपरमगुरुप्रसादेन बुद्ध्वेति । कम् ? जिनोपदेशं वीतरागसर्वज्ञ- मुखारविन्दविनिर्गतपरमोपदेशम् । तं पुनः किंविशिष्टम् ? पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं पूर्वापरदोष- हेतुभूतसकलमोहरागद्वेषाभावादाप्तमुखविनिर्गतत्वान्निर्दोषमिति ।
गाथा : १८७ अन्वयार्थ : — [पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम् ] पूर्वापर दोष रहित [जिनोपदेशं ] जिनोपदेशको [ज्ञात्वा ] जानकर [मया ] मैंने [निजभावनानिमित्तं ] निजभावनानिमित्तसे [नियमसारनामश्रुतम् ] नियमसार नामका शास्त्र [कृतम् ] किया है ।
यहाँ आचार्यश्री (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ) प्रारम्भ किये हुए कार्यके अन्तको प्राप्त करनेसे अत्यन्त कृतार्थताकोे पाकर कहते हैं कि सैंकड़ों परम – अध्यात्मशास्त्रोंमें कुशल ऐसे मैंने निजभावनानिमित्तसे — अशुभवंचनार्थ नियमसार नामक शास्त्र किया है । क्या करके (यह शास्त्र किया है) ? प्रथम ×अवंचक परम गुरुके प्रसादसे जानकर । क्या जानकर ? जिनोपदेशको अर्थात् वीतराग - सर्वज्ञके मुखारविन्दसे निकले हुए परम उपदेशको । कैसा है वह उपदेश ? पूर्वापर दोष रहित है अर्थात् पूर्वापर दोषके हेतुभूत सकल मोहरागद्वेषके अभावके कारण जो आप्त हैं उनके मुखसे निकला होनेसे निर्दोष है । × अवंचक = ठगें नहीं ऐसे; निष्कपट; सरल; ऋजु ।