और (इस शास्त्रके तात्पर्य सम्बन्धी ऐसा समझना कि ), जो (नियमसारशास्त्र)
वास्तवमें समस्त आगमके अर्थसमूहका प्रतिपादन करनेमें समर्थ है, जिसने नियम - शब्दसे
विशुद्ध मोक्षमार्ग सम्यक् प्रकारसे दर्शाया है, जो शोभित पंचास्तिकाय सहित है (अर्थात्
जिसमें पाँच अस्तिकायका वर्णन किया गया है ), जिसमें पंचाचारप्रपंचका संचय किया
गया है (अर्थात् जिसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच
प्रकारके आचारका कथन किया गया है ), जो छह द्रव्योंसे विचित्र है (अर्थात् जो छह
द्रव्योंके निरूपणसे विविध प्रकारका — सुन्दर है ), सात तत्त्व और नव पदार्थ जिसमें
समाये हुए हैं, जो पाँच भावरूप विस्तारके प्रतिपादनमें परायण है, जो निश्चय - प्रतिक्रमण,
निश्चय - प्रत्याख्यान, निश्चय - प्रायश्चित्त, परम - आलोचना, नियम, व्युत्सर्ग आदि सकल
परमार्थ क्रियाकांडके आडम्बरसे समृद्ध है (अर्थात् जिसमें परमार्थ क्रियाओंका पुष्कल
निरूपण है ) और जो तीन उपयोगोंसे सुसम्पन्न है (अर्थात् जिसमें अशुभ, शुभ और
शुद्ध उपयोगका पुष्कल कथन है ) — ऐसे इस परमेश्वर शास्त्रका वास्तवमें दो प्रकारका
तात्पर्य है : सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । सूत्रतात्पर्य तो पद्यकथनसे प्रत्येक सूत्रमें
( – पद्य द्वारा प्रत्येक गाथाके अन्तमें ) प्रतिपादित किया गया है । और शास्त्रतात्पर्य यह
निम्नानुसार टीका द्वारा प्रतिपादित किया जाता है : यह (नियमसार शास्त्र ) १भागवत
शास्त्र है । जो (शास्त्र ) निर्वाणसुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले, परमवीतरागात्मक, २निराबाध,
निरन्तर और ३अनंग परमानन्दका देनेवाला है, जो ४निरतिशय, नित्यशुद्ध, निरंजन निज
कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे शोभित है, जो पंचम
किञ्च अस्य खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थस्य नियमशब्दसंसूचित-
विशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपञ्चास्तिकायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपञ्चस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य
सप्ततत्त्वनवपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपादनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यान-
प्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोग-
त्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्यं, सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यं चेति ।
१ – भागवत = भगवानका; दैवी; पवित्र ।
२ – निराबाध = बाधा रहित; निर्विघ्न ।
३ – अनंग = अशरीरी; आत्मिक; अतीन्द्रिय ।
४ – निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।
३७२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-