Niyamsar (Hindi).

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गतिके हेतुभूत है और जो पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र - परिग्रहधारीसे (निर्ग्रन्थ
मुनिवरसे ) रचित हैऐसे इस भागवत शास्त्रको जो निश्चयनय और व्यवहारनयके
अविरोधसे जानते हैं, वे महापुरुषसमस्त अध्यात्मशास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और
परमानन्दरूप वीतराग सुखके अभिलाषीबाह्य-अभ्यन्तर चौवीस परिग्रहोंके प्रपंचको
परित्याग कर, त्रिकालनिरुपाधि स्वरूपमें लीन निज कारणपरमात्माके स्वरूपके श्रद्धान -
ज्ञान - आचरणात्मक भेदोपचार - कल्पनासे निरपेक्ष ऐसे स्वस्थ रत्नत्रयमें परायण वर्तते हुए,
शब्दब्रह्मके फलरूप शाश्वत सुखके भोक्ता होते हैं
[अब इस नियमसार - परमागमकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाकी पूर्णाहुति करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव चार श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] सुकविजनरूपी कमलोंको आनन्द देनेवाले (विकसित
सूत्रतात्पर्यं पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम्, शास्त्रतात्पर्यं त्विदमुपदर्शनेन भागवतं
शास्त्रमिदं निर्वाणसुंदरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिर्व्याबाधनिरन्तरानङ्गपरमानन्दप्रदं निरति-
शयनित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगति-
हेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन
जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिणः
परित्यक्त बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारण-
परमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः
शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति
(मालिनी)
सुकविजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्तं
ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत
निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।३०८।।
१-हृदय = हार्द; रहस्य; मर्म (इस भागवत शास्त्रको जो सम्यक् प्रकारसे जानते हैं, वे समस्त
अध्यात्मशास्त्रोंके हार्दके ज्ञाता हैं )
२-स्वस्थ = निजात्मस्थित (निजात्मस्थित शुद्धरत्नत्रय भेदोपचारकल्पनासे निरपेक्ष है )
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धोपयोग अधिकार[ ३७३