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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
पद्मप्रभाभिधानोद्घसिन्धुनाथसमुद्भवा ।
उपन्यासोर्मिमालेयं स्थेयाच्चेतसि सा सताम् ।।३०९।।
(अनुष्टुभ्)
अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत् ।
लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ।।३१०।।
(वसंततिलका)
यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे
तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् ।
तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् ।
तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्तिः
स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ।।३११।।
स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ।।३११।।
करनेवाले ) सूर्यने ललित पदसमूहों द्वारा रचे हुए इस उत्तम शास्त्रको जो विशुद्ध
आत्माका आकाँक्षी जीव निज मनमें धारण करता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका
वल्लभ होता है ।३०८।
आत्माका आकाँक्षी जीव निज मनमें धारण करता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका
वल्लभ होता है ।३०८।
[श्लोकार्थ : — ] पद्मप्रभ नामके उत्तम समुद्रसे उत्पन्न होनेवाली जो यह उर्मिमाला — कथनी (टीका), वह सत्पुरुषोंके चित्तमें स्थित रहो ।३०९।
[श्लोकार्थ : — ] इसमें यदि कोई पद लक्षणशास्त्रसे विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम पद करना ।३१०।
[श्लोकार्थ : — ] जबतक तारागणोंसे घिरा हुआ पूर्णचन्द्रबिम्ब उज्ज्वल गगनमें विराजे (शोभे), ठीक तबतक तात्पर्यवृत्ति (नामकी यह उज्ज्वल टीका) — कि जिसने हेय वृत्तियोंको निरस्त किया है (अर्थात् जिसने छोड़नेयोग्य समस्त विभाववृत्तियोंको दूर फें क दिया है) — वह सत्पुरुषोंके विशाल हृदयमें स्थित रहो ।३११।