शक्ति युक्त फलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्ध-
पर्यायश्च । अथवा पूर्वसूत्रोपात्तसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षड्द्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि
इदानीं व्यंजनपर्याय उच्यते । व्यज्यते प्रकटीक्रियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः । कुतः ? लोचनगोचरत्वात् पटादिवत् । अथवा सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्, द्रश्यमानविनाशस्वरूपत्वात् ।
व्यंजनपर्यायश्च — पर्यायिनमात्मानमन्तरेण पर्यायस्वभावात् शुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा जो स्वभाव-अनन्तचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पंचमभावपरिणति ( – उसके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली जो पूज्य ऐसी पारिणामिकभावकी परिणति) वही कारणशुद्धपर्याय है, ऐसा अर्थ है ।
सादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, केवलज्ञान – केवलदर्शन - केवलसुख - केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्तचतुष्टयके साथकी ( – अनन्त- चतुष्टयके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली) जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्धपरिणति वही ❃
द्रव्योंको साधारण और सूक्ष्म ऐसी वे अर्थपर्यायें शुद्ध जानना (अर्थात् वे अर्थपर्यायें ही शुद्धपर्यायें हैं ।) ।
है । किस कारण ? पटादिकी (वस्त्रादिकी) भाँति चक्षुगोचर होनेसे (प्रगट होती है ); अथवा, सादि - सांत मूर्त विजातीयविभावस्वभाववाली होनेसे, दिखकर नष्ट होनेके स्वरूपवाली होनेसे (प्रगट होती है ) ।
पर्यायी आत्माके ज्ञान बिना आत्मा पर्यायस्वभाववाला होता है; इसलिये ❃
क्षायिकभावपरिणति वह कार्यशुद्धपर्याय है ।