Niyamsar (Hindi).

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भावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः
साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवल-
शक्ति युक्त फलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्ध-
पर्यायश्च
अथवा पूर्वसूत्रोपात्तसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षड्द्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि
अर्थपर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः उक्त : समासतः शुद्धपर्यायविकल्पः
इदानीं व्यंजनपर्याय उच्यते व्यज्यते प्रकटीक्रियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः कुतः ?
लोचनगोचरत्वात् पटादिवत अथवा सादिसनिधनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्,
द्रश्यमानविनाशस्वरूपत्वात
व्यंजनपर्यायश्चपर्यायिनमात्मानमन्तरेण पर्यायस्वभावात् शुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा
३८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो स्वभाव-अनन्तचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पंचमभावपरिणति (उसके
साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली जो पूज्य ऐसी पारिणामिकभावकी परिणति) वही
कारणशुद्धपर्याय है, ऐसा अर्थ है
सादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, केवलज्ञान
केवलदर्शन - केवलसुख - केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्तचतुष्टयके साथकी (अनन्त-
चतुष्टयके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली) जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्धपरिणति वही
कार्यशुद्धपर्याय है अथवा, पूर्व सूत्रमें कहे हुए सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयके अभिप्रायसे, छह
द्रव्योंको साधारण और सूक्ष्म ऐसी वे अर्थपर्यायें शुद्ध जानना (अर्थात् वे अर्थपर्यायें ही
शुद्धपर्यायें हैं
)
(इसप्रकार) शुद्धपर्यायके भेद संक्षेपमें कहे
अब व्यंजनपर्याय कही जाती है : जिससे व्यक्त होप्रगट हो वह व्यंजनपर्याय
है किस कारण ? पटादिकी (वस्त्रादिकी) भाँति चक्षुगोचर होनेसे (प्रगट होती है );
अथवा, सादि - सांत मूर्त विजातीयविभावस्वभाववाली होनेसे, दिखकर नष्ट होनेके
स्वरूपवाली होनेसे (प्रगट होती है )
पर्यायी आत्माके ज्ञान बिना आत्मा पर्यायस्वभाववाला होता है; इसलिये
सहजज्ञानादि स्वभाव - अनन्तचतुष्टययुक्त कारणशुद्धपर्यायमेंसे केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टययुक्त कार्यशुद्धपर्याय
प्रगट होती है । पूजनीय परमपारिणामिकभावपरिणति वह कारणशुद्धपर्याय है और शुद्ध
क्षायिकभावपरिणति वह कार्यशुद्धपर्याय है ।