सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं
नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा ।।२६।।
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा ।
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ।।१५।।
नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति भणिताः ।
कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायास्ते स्वभावा इति भणिताः ।।१५।।
स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्ति रियम् ।
तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावद् द्विप्रकारेणोच्यते । कारण-
शुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति । इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभाव-
शुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्व-
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ ३७
क्वचित् अशुद्धरूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज पर्यायों सहित विलसता है
और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे
रहित है ऐसे इस जीवतत्त्वको मैं सकल अर्थकी सिद्धिके लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ ।२६।
गाथा : १५ अन्वयार्थ : — [नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायाः ] मनुष्य, नारक,
तिर्यञ्च और देवरूप पर्यायें [ते ] वे [विभावाः ] विभावपर्यायें [इति भणिताः ] कही गई
हैं; [कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायाः ] कर्मोपाधि रहित पर्यायें [ते ] वे [स्वभावाः ]
स्वभावपर्यायें [इति भणिताः ] कही गई हैं ।
टीका : — यह, स्वभावपर्यायों तथा विभावपर्यायोंका संक्षेपकथन है ।
वहाँ, स्वभावपर्यायों और विभावपर्यायोंके बीच प्रथम स्वभावपर्याय दो प्रकारसे कही
जाती है : कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय ।
यहाँ सहज शुद्ध निश्चयसे, अनादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले और शुद्ध
ऐसे सहजज्ञान - सहजदर्शन - सहजचारित्र - सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध-अन्तःतत्त्वस्वरूप
तिर्यञ्च, नारकि, देव, नर पर्याय हैं वैभाविकी ।
पर्याय कर्मोपाधिवर्जित हैं कही स्वाभाविकी ।।१५।।