भागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनंतगुणवृद्धिः, तथा
हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति ।
(मालिनी)
अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् ।
भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२४।।
(मालिनी)
इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां
हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा ।
सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम् ।।२५।।
(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः
क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः ।
३६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि सहित होती है और इसीप्रकार (वृद्धिकी
भाँति) हानि भी लगाई जाती है ।
अशुद्धपर्याय नर - नारकादि व्यंजनपर्याय है ।
[अब, १४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते
हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] परभाव होने पर भी, सहजगुणमणिकी खानरूप तथा पूर्णज्ञानवाले
शुद्ध आत्माको एकको जो तीक्ष्णबुद्धिवाला शुद्धदृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी
कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका) वल्लभ बनता है ।२४।
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार पर गुणपर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषोंके हृदय-
कमलमें कारण – आत्मा विराजमान है । अपनेसे उत्पन्न ऐसे उस परमब्रह्मरूप समयसारको
— कि जिसे तू भज रहा है उसे — , हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है ।२५।
[श्लोेकार्थ : — ] जीवतत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित ×विलसता है — दिखाई देता है,
× विलसना = दिखाई देना; दिखना; झलकना; आविर्भूत होना; प्रगट होना ।