अशुद्धद्रष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम् ।
मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्तं वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीय-
कर्मक्षयोपशमेन मूर्तं वस्तु पश्यति च । यथा श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेण
द्रव्यश्रुतनिगदितमूर्तामूर्तसमस्तं वस्तुजातं परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुर्दर्शनावरणीय-
कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च । यथा
अवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंतं मूर्तद्रव्यं जानाति तथा अवधि-
दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यति च ।
अत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति
पर्यायः । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मः
आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढानिवृद्धिविकल्पयुतः । अनंतभागवृद्धिः असंख्यात-
कहानजैनशास्त्रमाला ]जीव अधिकार[ ३५
टीका : — यह, अशुद्ध दर्शनकी तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्यायकी सूचना है ।
जिसप्रकार मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) मूर्त वस्तुको जानता है,
उसीप्रकार चक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) मूर्त वस्तुको १देखता है ।
जिसप्रकार श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) श्रुत द्वारा द्रव्यश्रुतने कहे हुए मूर्त –
अमूर्त समस्त वस्तुसमूहको परोक्ष रीतिसे जानता है, उसीप्रकार अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके
क्षयोपशमसे (जीव) स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र द्वारा उस-उसके योग्य विषयोंको देखता
है । जिसप्रकार अवधिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे (जीव) शुद्धपुद्गलपर्यंत
( – परमाणु तकके) मूर्तद्रव्यको जानता है, उसीप्रकार अवधिदर्शनावरणीय कर्मके
क्षयोपशमसे (जीव) समस्त मूर्त पदार्थको देखता है ।
(उपरोक्तानुसार) उपयोगका व्याख्यान करनेके पश्चात् यहाँ पर्यायका स्वरूप कहा
जाता है :
परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः । अर्थात् जो सर्व ओरसे भेदको प्राप्त करे
सो पर्याय है ।
उसमें, स्वभावपर्याय छह द्रव्योंको साधारण है, अर्थपर्याय है, वाणी और मनके
अगोचर है, अति सूक्ष्म है, आगमप्रमाणसे स्वीकारकरनेयोग्य तथा छह हानिवृद्धिके भेदों
सहित है अर्थात् अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण
१-देखना = सामान्यरूपसे अवलोकन करना; सामान्य प्रतिभास होना ।