कारणकार्यपरमाणुद्रव्यस्वरूपाख्यानमेतत् ।
पृथिव्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः; तेषां यो हेतुः स कारणपरमाणुः । स एव जघन्य-
परमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः । स्निग्धरूक्षगुणा-
नामनन्तत्वस्योपरि द्वाभ्याम् चतुर्भिः समबन्धः त्रिभिः पञ्चभिर्विषमबन्धः । अयमुत्कृष्ट-
परमाणुः । गलतां पुद्गलद्रव्याणाम् अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणुः ।
अणवश्चतुर्भेदाः कार्यकारणजघन्योत्कृष्टभेदैः । तस्य परमाणुद्रव्यस्य स्वरूपस्थितत्वात्
विभावाभावात् परमस्वभाव इति ।
तथा चोक्तं प्रवचनसारे —
कहानजैनशास्त्रमाला ]अजीव अधिकार[ ५५
हुए अविभागी अन्तिम अंशको) [कार्यपरमाणुः ] कार्यपरमाणु [ज्ञातव्य: ] जानना ।
टीका : — यह, कारणपरमाणुद्रव्य और कार्यपरमाणुद्रव्यके स्वरूपका कथन है ।
पृथ्वी, जल, तेज और वायु यह चार धातुएँ हैं; उनका जो हेतु है वह कारणपरमाणु
है । वही (परमाणु), एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होनेसे, सम या विषम बन्धके अयोग्य
ऐसा जघन्य परमाणु है — ऐसा अर्थ है । एक गुण स्निग्धता या रूक्षताके ऊ पर, दो
गुणवालेका और चार गुणवालेका ❃समबन्ध होता है तथा तीन गुणवालेका और पाँच
गुणवालेका ❃विषमबन्ध होता है, — यह उत्कृष्ट परमाणु है । गलते अर्थात् पृथक् होते
पुद्गलद्रव्योंके अन्तमें — अवसानमें (अन्तिम दशामें) स्थित वह कार्यपरमाणु है (अर्थात्
स्कन्ध खण्डित होते - होते जो छोटेसे छोटा अविभाग भाग रहता है वह कार्यपरमाणु है ) ।
(इसप्रकार) अणुओंके ( – परमाणुओंके) चार भेद हैं : कार्य, कारण, जघन्य और उत्कृष्ट ।
वह परमाणुद्रव्य स्वरूपमें स्थित होनेसे उसे विभावका अभाव है, इसलिये (उसे) परम
स्वभाव है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (१६५वीं तथा
१६६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
❃समबन्ध अर्थात् सम संख्याके गुणवाले परमाणुओंका बन्ध और विषमबन्ध अर्थात् विषम संख्याके गुणवाले
परमाणुओंका बन्ध । यहाँ (टीकामें) समबन्ध और विषमबन्धका एक – एक उदाहरण दिया है तदनुसार
समस्त समबन्ध और विषमबन्ध समझ लेना ।