चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।’’
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३८।।
पुद्गलविकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।’’
और (इन गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विविध प्रकारके पुद्गलोंमें रति न करके चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामें रति करना ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार विविध भेदोंवाला पुद्गल दिखाई देने पर, हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम !) तू उसमें रतिभाव न कर । चैतन्यचमत्कारमात्रमें (अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामें) तू अतुल रति कर कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होगा ।३८।
गाथा : २५ अन्वयार्थ : — [पुनः ] फि र [यः ] जो [धातुचतुष्कस्य ] (पृथ्वी, जल, तेज और वायु — इन) चार धातुओंका [हेतुः ] हेतु है, [सः ] वह [कारणम् इति ज्ञेयः ] कारणपरमाणु जानना; [स्कन्धानाम् ] स्कन्धोंके [अवसानः ] अवसानको ( – पृथक्