रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध-
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
इति विविधविकल्पे पुद्गले द्रश्यमाने
न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन् ।
कुरु रतिमतुलां त्वं चिच्चमत्कारमात्रे
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३८।।
धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेयो ।
खंधाणं अवसाणं णादव्वो कज्जपरमाणू ।।२५।।
धातुचतुष्कस्य पुनः यो हेतुः कारणमिति स ज्ञेयः ।
स्कन्धानामवसानो ज्ञातव्यः कार्यपरमाणुः ।।२५।।
५४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
प्रकारका दिखाई देता है, जीव तो अनेक प्रकारका है नहीं;) और यह जीव तो रागादिक
पुद्गलविकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।’’
और (इन गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव विविध प्रकारके पुद्गलोंमें रति न करके चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामें रति
करना ऐसा श्लोक द्वारा कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार विविध भेदोंवाला पुद्गल दिखाई देने पर, हे भव्यशार्दूल !
(भव्योत्तम !) तू उसमें रतिभाव न कर । चैतन्यचमत्कारमात्रमें (अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र
आत्मामें) तू अतुल रति कर कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होगा ।३८।
गाथा : २५ अन्वयार्थ : — [पुनः ] फि र [यः ] जो [धातुचतुष्कस्य ] (पृथ्वी,
जल, तेज और वायु — इन) चार धातुओंका [हेतुः ] हेतु है, [सः ] वह [कारणम् इति
ज्ञेयः ] कारणपरमाणु जानना; [स्कन्धानाम् ] स्कन्धोंके [अवसानः ] अवसानको ( – पृथक्
जो हेतु धातु चतुष्कका कारण - अणु विख्यात है ।
अरु स्कन्धके अवसानमें कार्याणु होता प्राप्त है ।।२५।।