कृष्णवर्णेष्वेकवर्णः, सुगन्धदुर्गन्धयोरेकगंधः, कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाभिधाना- मष्टानामन्त्यचतुःस्पर्शाविरोधस्पर्शनद्वयम्; एते परमाणोः स्वभावगुणाः जिनानां मते । विभावगुणात्मको विभावपुद्गलः । अस्य द्वयणुकादिस्कंधरूपस्य विभावगुणाः सकल- करणग्रामग्राह्या इत्यर्थः ।
गाथा : २७ अन्वयार्थ : — [एकरसरूपगन्धः ] जो एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और [द्विस्पर्शः ] दो स्पर्शवाला हो, [सः ] वह [स्वभावगुणः ] स्वभावगुणवाला [भवेत् ] है; [विभावगुणः ] विभावगुणवालेको [जिनसमये ] १जिनसमयमें [सर्वप्रकटत्वम् ] सर्व प्रगट (सर्व इन्द्रियोंसे ग्राह्य) [इति भणितः ] कहा है ।
चरपरा, कड़वा, कषायला, खट्टा और मीठा इन पाँच रसोंमेंसे एक रस; सफे द, पीला, हरा, लाल और काला इन (पाँच) वर्णोंमेंसे एक वर्ण; सुगन्ध और दुर्गंधमेंकी एक गंध; कठोर, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध (चिकना) और रूक्ष (रूखा) इन आठ स्पर्शोंमेंसे अन्तिम चार स्पर्शोंमेंके अविरुद्ध दो स्पर्श; यह, जिनोंके मतमें परमाणुके स्वभावगुण हैं । विभावपुद्गल विभावगुणात्मक होता है । यह २द्वि-अणुकादिस्कन्धरूप विभावपुद्गलके विभावगुण सकल इन्द्रियसमूह द्वारा ग्राह्य (जाननेमें आने योग्य) हैं । — ऐसा (इस गाथाका) अर्थ है । १ – समय = सिद्धान्त; शास्त्र; शासन; दर्शन; मत । २ – दो परमाणुओंसे लेकर अनन्त परमाणुओंका बना हुआ स्कन्ध वह विभावपुद्गल है ।