न्निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः ।
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः ।।४१।।
इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमयमें (८१वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थः — ] एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और दो स्पर्शवाला वह परमाणु शब्दका कारण है, अशब्द है और स्कन्धके भीतर हो तथापि द्रव्य है (अर्थात् सदैव सर्वसे भिन्न, शुद्ध एक द्रव्य है ) ।’’
स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध तथा एक रस समझना, अन्य नहीं ।’’
और (२७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा भव्य जनोंको शुद्ध आत्माकी भावनाका उपदेश करते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] यदि परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशते (ज्ञात होते) निज गुणसमूहमें हैं, तो उसमें मेरी (कोई) कार्यसिद्धि नहीं है, (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध आदि अपने गुणोंमें ही है, तो फि र उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता); — इसप्रकार निज हृदयमें मानकर परम सुखपदका अर्थी भव्यसमूह शुद्ध आत्माको एकको भाये ।४१।